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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
लोगों के लिए बनाया । सिद्धर्षि ने कहीं भी इस तथ्य का निर्देश नहीं अत: यह मानना कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति न होकर किया है कि मूलग्रन्थ मेरे द्वारा बनाया गया है । अत: यह कल्पना करना सिद्धर्षि की कृति है और उस पर लिखी गयी न्यायावतार वृत्ति स्वोपज्ञ निराधार है कि मूल न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति है और उस पर उन्होंने है, उचित प्रतीत नहीं होता। स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है।
न्यायावतार सिद्धसेन की कृति है, इसका सबसे महत्त्वपूर्ण यह सत्य है कि उस युग में स्वोपज्ञ टीका या वृत्ति लिखे जाने प्रमाण तो यह है कि मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ नयचक्र में स्पष्ट रूप की प्रवृत्ति प्रचलन में थी किन्तु इस सिद्धर्षि की वृत्ति से कहीं भी फलित से सिद्धसेन को न्यायावतार का कर्ता कहा है । मुझे ऐसा लगता है नहीं होता है कि वह स्वोपज्ञ है । पुन: स्वोपज्ञवृत्ति में मूल में वर्णित कि प्रतिलिपिकारों के प्रमाद के कारण ही कहीं न्यायावतार की जगह विषयों का ही स्पष्टीकरण किया जाता है, उसमें नये विषय नहीं आते। नयावतार हो गया है । प्रतिलिपियों में ऐसी भूलें सामान्यतया हो ही उदाहरण के रूप में तत्त्वार्थसूत्र मूल में गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा जाती हैं। नहीं है तो उसके स्वोपज्ञ भाष्य में किसी भी स्थान में गुणस्थान सिद्धान्त जहाँ तक सिद्धसेन की उन स्तुतियों का प्रसंग है जिनमें महावीर की चर्चा नही की गयी किन्तु अन्य आचार्यों के द्वारा जब उस पर टीकायें के विवाह आदि के संकेत हैं, दिगम्बर विद्वानों की यह अवधारणा कि लिखी गयी तो उन्होंने विस्तार से गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की। यह किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है उचित नहीं है। केवल अपनी इससे यही फलित होता है कि न्यायावतार की मूल कारिकायें सिद्धर्षि परम्परा से समर्थित न होने के कारण किसी अन्य सिद्धसेन की कृति की कृति नहीं हैं। यदि मूलकारिकाएँ भी सिद्धर्षि की कृति होतीं तो उनमें कहें, यह उचित नहीं है। नैगमादि नयों एवं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा तर्क आदि प्रमाणों की कहीं कोई चर्चा अवश्य होनी थी।
सन्दर्भ नये विवेचन के सन्दर्भ में डॉ० पाण्डेय का यह तर्क भी १. - सन्मति प्रकरण- सम्पादक, पं० सुखलाल जी संघवी, ज्ञानोदय समीचीन नहीं है कि “यदि सिद्धर्षि सिद्धसेन के ग्रन्थ पर वृत्ति लिखे होते
ट्रस्ट, अहमदाबाद, प्रस्तावना, पृष्ठ ६ से १६। तो जो सिद्धसेन को अभीष्ट नहीं है या तो उसका उल्लेख नहीं करते या २ अ. दंसणगाही-दसणणाणप्पभावगणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छयउल्लेख करते भी तो यह कहकर कि मूलकार इसे नहीं मानता।" यहाँ
संमतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि टीकाकारों के द्वारा अपनी नवीन
तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चिती भवतीत्यर्थः । मान्यता को प्रस्तुत करते समय कहीं भी यह लिखने की प्रवृत्ति नहीं रही
- निशीथचूर्णि, भाग१, पृष्ठ १६२ । कि वे आवश्यक रूप से जो मूलग्रन्थकार का मंतव्य नहीं है उसका
दंसणप्पभावगाण सत्थाण सम्मदियादिसुतणाणे य जो विसारदो उल्लेख करें। सिद्धर्षि की न्यायावतार वृत्ति में नयों की जो चर्चा है वह
णिस्सकियसुत्तथो त्ति वुत्तं भवति । किसी मूल कारिका की व्याख्या न हो करके एक परिशिष्ट के रूप में
- वही, भाग ३, पृष्ठ २०२ । की गयी चर्चा ही है क्योंकि मूल ग्रन्थ की २९वीं कारिका में मात्र 'नय'
ब. आयरिय सिद्धसेणेण सम्मई ए पइट्ठि अजसेणं। शब्द आया है उसमें कहीं भी नय कितने हैं यह उल्लेख नहीं है, यह
दूसमणिसादिवागर कप्पत्तणओ तदक्खेणं। टीकाकार की अपनी व्याख्या है और टीकाकार के लिए यह बाध्यता नहीं होती है कि वह उन विषयों की चर्चा न करे जो मूल में नहीं है। इतना
- पंचवस्तु (हरिभद्र), १०४८ निश्चित है कि यदि सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ होती तो वे मूल में कहीं
स. श्रीदशाश्श्रुतस्कन्ध मूल, नियुक्ति, चूर्णिसह-पृ० १६ न कहीं नयों की चर्चा करते। इससे यही फलित होता है कि मूल
(श्रीमणिविजय ग्रन्थमाला नं० १४, सं० २०११)(यहाँ सिद्धसेन ग्रन्थकार और वृत्तिकार दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं।
को गुरु से भिन्न अर्थ करने वाला भाव-अभिनय का दोषी बताया टीका में नवीन-नवीन विषयों का समावेश यही सिद्ध करता है
गया है)। कि न्यायावतार की सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ नहीं है। जहाँ तक डॉ०
द. पूर्वाचार्य विरचितेषु सन्मति-नयावतारादिषु ....... पाण्डेय के इस तर्क का प्रश्न है कि वृत्तिकार ने मूलग्रन्थकार का निर्देश -द्वादशारं नयचक्रम्, (मल्लवादि)। भावनगरस्या श्री आत्मानन्द प्रारम्भ में क्यों नहीं किया, इस सम्बन्ध में मेरा उत्तर यह है कि जैन सभा, १९८८, तृतीय विभाग, पृ०८८६ । परम्परा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ वृत्तिकार मूलग्रन्थकार से भिन्न ३ अ. अणेण सम्मइसुत्तेणसह कथमिदं वक्खाणं ण विरूज्झदे। होते हुए भी मूलग्रन्थकार का निर्देश नहीं करता है । उदाहरण के रूप (ज्ञातव्य है कि इसके पूर्व सन्मतिसूत्र की गाथा ६उद्धृत है-धवला, में तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में कहीं भी यह निर्देश नहीं है कि टीका समन्वित षटखण्डागम १/१/१ पुस्तक, १, पृष्ठ १६ । वह उमास्वाति के मूल ग्रन्थ पर टीका लिख रहा है। ये लोग प्रायः केवल ब. जगत्प्रसिद्ध बोधस्य, वृषभस्येव निस्तुषाः । ग्रन्थ का निर्देश करके ही संतोष कर लेते थे, ग्रन्थकार का नाम बताना बोध्यंति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ।। आवश्यक नहीं समझते थे क्योंकि वह जनसामान्य में ज्ञात ही होता था।
-हरिवंशपुराण (जिनसेन) १/३० ।
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