Book Title: Tarkik Shiromani Acharya Siddhasen Diwakar Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ तार्किक शिरोमणि आचार्य सिद्धसेन "दिवाकर' सिद्धसेन दिवाकर जैन दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान् रहे हैं। जैन निष्कर्ष में सिद्धसेन को ५वीं शताब्दी का आचार्य माना है, वहाँ मैं इस दर्शन के क्षेत्र में अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना करने वाले वे प्रथम काल सीमा को लगभग १०० वर्ष पहले विक्रम की चतुर्थ सदी में ले पुरुष हैं। जैन दर्शन के आध तार्किक होने के साथ-साथ वे भारतीय दर्शन जाने के पक्ष में हूँ जिसकी चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा । के आद्य संग्राहक और समीक्षक भी हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में विभिन्न भारतीय दर्शनों की तार्किक समीक्षा भी प्रस्तुत की है । ऐसे महान् सिद्धसेन का काल दार्शनिक के जीवन वृत्त और कृतित्व के सम्बन्ध में तेरहवीं-चौदहवीं उनके सत्ता काल के सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी ने एवं डॉ० शताब्दी में रचित प्रबन्धों के अतिरिक्त अन्यत्र मात्र सांकेतिक सूचनाएँ ही श्रीप्रकाश पाण्डेय ने विस्तृत चर्चा की है। अतः हम तो यहाँ केवल मिलती हैं । यद्यपि उनके अस्तित्व के सन्दर्भ में हमें अनेक प्राचीन ग्रन्थों संक्षिप्त चर्चा करेंगे। प्रभावकचरित में सिद्धसेन की गुरु परम्परा की में संकेत उपलब्ध होते हैं। लगभग चतुर्थ शताब्दी से जैन ग्रन्थों में उनके विस्तृत चर्चा हुई है। उसके अनुसार सिद्धसेन आर्य स्कन्दिल के प्रशिष्य और उनकी कृतियों के सन्दर्भ हमें उपलब्ध होने लगते हैं। फिर भी उनके और वृद्धवादी के शिष्य थे। आर्य स्कन्दिल को माथुरी वाचना का प्रणेता जीवनवृत्त और कृतित्व के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी का अभाव ही माना जाता है। यह वाचना वीर निर्वाण ८४० में हुई थी। परम्परागत है। यही कारण है कि उनके जीवनवृत्त, सत्ताकाल, परम्परा तथा कृतियों मान्यता के आधार पर आर्य स्कन्दिल का समय विक्रम की चतुर्थ को लेकर अनेक विवाद आज भी प्रचलित हैं। यद्यपि पूर्व में पं० शताब्दी (८४०-४७०=३७०) के उत्तरार्ध के लगभग आता है। किन्तु सुखलाल जी, प्रो० ए०एन० उपाध्ये, पं० जुगल किशोर जी मुख्तार यदि हम पाश्चात्य विद्वानों की प्रमाण पुरस्सर अवधारणा के आधार पर आदि विद्वानों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सन्दर्भ में प्रकाश डालने वीर निर्वाण विक्रम संवत् ४१० वर्ष पूर्व मानें तो स्कन्दिल का समय का प्रयत्न किया है किन्तु इन विद्वानों की परस्पर विरोधी स्थापनाओं के विक्रम की चौथी शती का उत्तरार्ध और पाँचवी का पूर्वार्ध (८४०कारण विवाद अधिक गहराता ही गया। मैंने अपने ग्रन्थ 'जैन धर्म का ४१०=४३०) सिद्ध होगा। कभी-कभी प्रशिष्य अपने प्रगुरु के समकालिक यापनीय सम्प्रदाय' में उनकी परम्परा और सम्प्रदाय के सम्बन्ध में भी होता है इस आधार पर सिद्धसेन दिवाकर का काल भी विक्रम की पर्याप्त रूप से विचार करने का प्रयत्न किया है किन्तु उनके समग्र चौथी शताब्दी का उत्तरार्ध भी माना जा सकता है। प्रबन्धों में सिद्धसेन व्यक्त्वि और कृतित्व के सम्बन्ध में आज तक की नवीन खोजों के को विक्रमादित्य का समकालीन भी माना गया है। यदि चन्द्रगुप्त द्वितीय परिणामस्वरूप जो कुछ नये तथ्य सामने आये हैं, उन्हें दृष्टि में रखकर को विक्रमादित्य मान लिया जाय तो सिद्धसेन चतुर्थ शती के सिद्ध होते डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने सिद्वसेन दिवाकर के व्यक्तित्व और कृतित्व हैं। यह माना जाता है उनकी सभा में कालिदास, क्षपणक आदि नौ रत्न के सन्दर्भ में अब तक जो कुछ लिखा गया था उसका आलोड़न और थे और यदि क्षपणक सिद्धसेन ही थे तो सिद्धसेन का काल विक्रम की विलोड़न करके ही एक कृति का प्रणयन किया है । उनकी यह कृति चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध माना जा सकता है, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय मात्र उपलब्ध सूचनाओं का संग्रह ही नहीं है अपितु उनके तार्किक चिन्तन का काल भी विक्रम की चर्तुथ शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है। पुन: का परिणाम है । यद्यपि अनके स्थलों पर मैं उनके निष्कर्षों से सहमत मल्लवादी ने सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क पर टीका लिखी थी, नहीं हूँ फिर भी उन्होंने जिस तार्किकता के साथ अपने पक्ष को प्रस्तुत ऐसा निर्देश आचार्य हरिभद्र ने किया है। प्रबन्धों के मल्लवादी का काल किया है वह निश्चय ही श्लाघनीय है । प्रस्तुत निबन्ध में मैं उन्हीं तथ्यों वीर निर्वाण संवत् ८८४ (८८४-४७०=४१४) के आसपास माना पर प्रकाश डालूँगा, जिनपर या तो उन्होंने कोई चर्चा नहीं की है या जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के पूर्वार्ध जिनके सम्बन्ध में मैं उनके निष्कर्षों से सहमत नहीं हूँ। में सन्मतिसूत्र पर टीका लिखी जा चुकी थी । अतः सिद्धसेन विक्रम वस्तुत: सिद्धसेन के सन्दर्भ में प्रमुख रूप से तीन ऐसी बातें रहीं की चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए होंगे। पुनः विक्रम की छठी शताब्दी है जिनपर विद्वानों में मतभेद पाया जाता है में पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण में सिद्धसेन के मत का (१) उनका सत्ता काल उल्लेख किया है। पूज्यपाद देवनन्दी का काल विक्रम की पाँचवी-छठी (२) उनकी परम्परा और शती माना गया है। इससे भी वे विक्रम संवत् की पांचवी-छठी शताब्दी (३) न्यायावतार एवं कुछ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाओं के कृतित्व का के पूर्व हुए हैं, यह तो सुनिश्चित हो जाता है। प्रश्न । मथुरा के अभिलेखों में दो अभिलेख ऐसे हैं जिनमें आर्य ___ यद्यपि उनके सत्ताकाल के सन्दर्भ में मेरे मन्तव्य एवं डॉ० वृद्धहस्ति का उल्लेख है । संयोग से इन दोनों अभिलेखों में काल भी पाण्डेय के मन्तव्य में अधिक दूरी नहीं हैं फिर भी जहाँ उन्होंने अपने दिया हुआ है । ये अभिलेख हुविष्क के काल के हैं । इनमें से प्रथम में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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