SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६१ तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर' समुच्चय में प्रत्यक्ष की परिभाषा में 'अभ्रान्त' पद का प्रयोग हुआ है। किये हों। अभिधर्म समुच्चय में असंग स्वयं लिखते हैं पुनः, जब न्यायावतार का दूसरा व चौथा पूरा का पूरा श्लोक प्रत्यक्षं स्व सतप्रकाशाभ्रान्तोऽर्थ। याकनीसूनु हरिभद्र के अष्टकप्रकरण और षड्दर्शनसमुच्च्य में पाया जाता ज्ञातव्य है कि असंङ्ग वसुबन्धु के बड़े भाई थे और इनका काल है तो फिर न्यायावतार को हरिभद्र के बाद होने वाले सिद्धर्षि की कृति लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी है । अत: सिद्धसेन दिवाकर की कृति कैसे माना जा सकता है ? इससे यह स्पष्ट है कि न्यायावतार की रचना न्यायावतार में अभ्रान्त पद को देखकर उसे न तो परवर्ती माना जा हरभिद्र से पूर्व हो चुकी थी, फिर इसे सिद्धर्षि की कृति कैसे माना जा सकता है और न यह माना जा सकता है कि वह धर्मकीर्ति से परवर्ती सकता है? अत: डॉ० पाण्डेय और प्रो० ढाकी का यह मानना कि किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है । यदि बौद्ध न्याय में अभ्रान्त पद का न्यायावतार मूल सिद्धर्षि की कृति है किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं उल्लेख तीसरी-चौथी शताब्दी के ग्रन्थों में उपलब्ध है तो फिर न्यायावतार है। अपने पक्ष के बचाव में डॉ० पाण्डेय का यह तर्क कि ये श्लोक (चतुर्थशती) में अभ्रान्त पद के प्रयोग को अस्वाभाविक नहीं माना जा सिद्धसेन की लुप्त प्रमाण द्वात्रिंशिका के हों, अधिक वजनदार नहीं सकता है। डॉ० पाण्डेय ने भी अपनी इस कृति में इस तथ्य को स्वीकार लगता है । जब न्यायावतार के ये श्लोक स्पष्ट रूप से हरभिद्र के कर लिया है फिर भी वे न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने में अष्टकप्रकरण और षड्दर्शनसमुच्चय से मिल रहे हों तो फिर द्राविड़ी संकोच कर रहे हैं? प्राणयाम के द्वारा यह कल्पना करना कि वे किसी लुप्त प्रमाणद्वात्रिशिंका उनका दूसरा तर्क यह है कि न्यायावतार की अनुमान-प्रमाण की के श्लोक होंगे, युक्तिसंगत नहीं है । जब सिद्धसेन के इस न्यायावतार परिभाषा पर दिगम्बर विद्वान् पात्र केसरी का प्रभाव है। उनके अनुसार में अभी ३२ श्लोक हैं तो फिर सम्भव यह भी है कि इसका ही अपर न्यायावतार की २२वीं कारिका का पात्र केसरी की विलक्षण कदर्थन की नाम प्रमाणद्वात्रिंशिका हो ? पुनः जब हरिभद्र के द्वारा न्यायावतार पर कारिका से आंशिक साम्य है, लेकिन इस आधार पर यह मानना की पात्र वृत्ति लिखे जाने पर स्पष्ट सूचनायें प्राप्त हो रही हैं तो फिर यह कल्पना केसी(७वीं शती) का प्रभाव न्यायावतार पर है मुझे तर्कसंगत नहीं जान करना कि वे हरिभद्र प्रथम न होकर कोई दूसरे हरिभद्र होंगे मुझे उचित पड़ता, क्योंकि इसके विपरीत यह भी तो माना जा सकता है कि नहीं लगता । जब याकिनीसूनु हरिभद्र न्यायावतार की कारिका अपने सिद्धसेन दिवाकर का ही अनुसरण पात्र केसरी ने किया है। ग्रन्थों में उद्धृत कर रहे हैं तो यह मानने में क्या बाधा है कि वृत्तिकार तीसरे, जब न्यायावतार के वार्तिक में शान्तिसूरि स्पष्ट रूप से भी वे ही हों ? 'सिद्धसेनार्क सूत्रितम्' (न्यायावतारसूत्र वार्तिक, १/१) ऐसा स्पष्ट उल्लेख न्यायावतार की विषय वस्तु से यह स्पष्ट है कि वह जैन प्रमाण करते हैं तो फिर यह संदेह कैसे किया जा सकता है कि न्यायावतार के शास्त्र की आद्य रचना है। उसमें अकलंक के काल में विकसित तीन कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पदवी वाले सिद्धसेन नहीं हैं। यदि न्यायावतार प्रमाणों यथा- स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क का ऊह का उपलब्ध नहीं होना सिद्धर्षि की कृति होती तो वार्तिककार शान्त्याचार्य जो उनसे लगभग दो तथा आगमिक तीन प्रमाणों की सूचना प्राप्त होना यही प्रमाणित करता सौ वर्ष पश्चात हुए हैं, यह उल्लेख अवश्य करते । उनके द्वारा सिद्धसेन है कि वह अकलंक (८वीं शती) से पूर्व का ग्रन्थ है। सिद्धर्षि का काल के लिए 'अर्क' विशेषण का प्रयोग यही सिद्ध करता है कि न्यायावतार अकलंक से परवर्ती है और उन्होंने अपने न्यायावतार की वृत्ति में स्पष्टतः के कर्ता अन्य कोई सिद्धसेन न होकर सिद्धसेन दिवाकर ही हैं । क्योंकि इन प्रमाणों की चर्चा की है- जबकि आठवीं शती तक के किसी श्वेताम्बर अर्क का मतलब स्पष्ट रूप से दिवाकर (सूर्य) ही है। आचार्य में इनकी चर्चा नहीं है, यहाँ तक कि हरिभद्र भी इन प्रमाणों पुनः, न्यायावतार की कारिकाओं की समन्तभद्र की कारिकाओं की चर्चा नहीं करते हैं- पूर्ववर्ती श्वेताम्बराचार्य आगमिक तीन प्रमाणों में समरूपता दिखाई देने पर भी न्यायावतार को सिद्धसेन दिवाकरकृत प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द की चर्चा करते हैं । अतः यह सिद्ध हो जाता मानने पर बाधा नहीं आती, क्योंकि समन्तभद्र की आप्तमीमांसा आदि है कि न्यायावतार, आगमिक तीन प्रमाणों का ही उल्लेख करने के कृतियों में सिद्धसेन के सन्मतितर्क का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। इनमें कारण सिद्धसेन दिवाकर की ही कृति है। यदि कहीं सिद्धर्षि की कृति न केवल भावगत समानता है, अपितु प्राकृत और संस्कृत के शब्द रूपों होती तो निश्चय ही मूल कारिका में इनकी चर्चा होनी थी । पुन: डॉ० को छोड़कर भाषागत भी समानता है और यह निश्चित है कि सिद्धसेन पाण्डेय का यह कथन की स्वोपज्ञवृत्ति में कतिपय विषय बिन्दु ऐसे दिवाकर समन्तभद्र से पूर्ववर्ती हैं । अत: सिद्धसेन की कृतियों की मिलते हैं जिनका उल्लेख मूल में नहीं है परन्तु भाष्य या वृत्ति में होता समन्तभद्र की कृतियों में समरूपता दिखाई देने के आधार पर यह है किन्तु मैं डॉ० पाण्डेय के इस तर्क से सहमत नहीं हूँ क्योंकि यदि अनुमान कर लेना उचित नहीं होगा कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर न्यायावतार सिद्धर्षि की वृत्ति होती तो वे कम से कम यह तर्क नहीं देते की कृति नहीं है। समन्तभद्र ने जब सिद्धसेन के सन्मतितर्क से कि इस न्यायावतार प्रकरण में अनुमान से ऊह को पृथक् करके नहीं आप्तमीमांसा में अनेक श्लोकों का ग्रहण किया है तो यह भी सम्भव दिखाया गया क्योंकि यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि के जीवों के अनुग्रह के है कि उन्होंने रत्नकरण्डकश्रावकाचार (जिसका समन्तभद्रकृत होना भी लिए लिखा गया । इस प्रसंग में यदि सिद्धर्षि ने स्वयं ही मूलग्रन्थ लिखा विवादास्पद है) में भी सिद्धसेन के न्यायावतार से कुछ श्लोक अभिगृहीत होता तो अवश्य यह लिखते कि मैंने यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211118
Book TitleTarkik Shiromani Acharya Siddhasen Diwakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy