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________________ ६५८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ध्रुवीकरण के पूर्व की हैं । इस प्रकार युगपद्वाद और अभेदवाद की हम चाहे उनके गण (वंश) की दृष्टि से विचार करें या काल की निकटता के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष का सिद्ध दृष्टि से विचार करें सिद्धसेन दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं नहीं किया जा सकता है । अन्यथा फिर तो तत्त्वार्थभाष्यकार को भी के अस्तित्व में आने के पूर्व ही हो चुके थे। वे उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ दिगम्बर मानना होगा, किन्तु कोई भी तत्त्वार्थभाष्य की सामग्री के आधार धारा में हुए हैं जो आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय के रूप में पर उसे दिगम्बर मानने को सहमत नहीं होगा। विभाजित हुई। यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में सिद्धसेन का आदरपूर्वक (४) पुन: आदरणीय उपाध्ये जी का यह कहना कि एक उल्लेख उन्हें अपनी पूर्वज धारा के एक विद्वान् आचार्य होने के कारण द्वात्रिंशिका में महावीर के विवाहित होने का संकेत चाहे सिद्धसेन ही है । वस्तुत: सिद्धसेन को श्वेताम्बर या यापनीय सिद्ध करने के प्रयत्न दिवाकर को दिगम्बर घोषित नहीं करता हो, किन्तु उन्हें यापनीय मानने इसलिए निरर्थक है कि पूर्वज धारा में होने के कारण क्वचित् मतभेदों में इससे बाधा नहीं आती है, क्योंकि यापनीयों को भी कल्पसूत्र तो मान्य के होते हुए भी वे दोनों के लिए समान रूप से ग्राह्य रहे हैं । श्वेताम्बर था ही । किन्तु कल्पसूत्र को मान्य करने के कारण वे श्वेताम्बर भी तो और यापनीय दोनों को यह अधिकार है कि वे उन्हें अपनी परम्परा को माने जा सकते है । अत: यह तर्क उनके यापनीय होने का सबल तर्क बताएँ किन्तु उन्हें साम्प्रदायिक अर्थ में श्वेताम्बर या यापनीय नहीं कहा नहीं है । कल्पसूत्र श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्व का ग्रन्थ है और दोनों जा सकता है । वे दोनों के ही पूर्वज हैं। को मान्य है। अत: कल्पसूत्र को मान्य करने से वे दोनों के पूर्वज भी (५) प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने उन्हें कर्नाटकीय ब्राह्मण बताकर सिद्ध होते हैं। कर्नाटक में यापनीय परम्परा का प्रभाव होने से उनको यापनीय परम्परा आचार्य सिद्धसेन के कुल और वंश सम्बन्धी विवरण भी उनकी से जोड़ने का प्रयत्न किया है । किन्तु उत्तर-पश्चिम कर्नाटक में उपलब्ध परम्परा निर्धारण में सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं । प्रभावकचरित्र और पाँचवी, छठी शताब्दी के अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि उत्तर भारत प्रबन्धकोश में उन्हें विद्याधर गच्छ का बताया गया है । अत: हमें के श्वेतपट्ट महाश्रमणसंघ का भी उस क्षेत्र में उतना ही मान था जितना सर्वप्रथम इसी सम्बन्ध में विचार करना होगा । दिगम्बर परम्परा ने सेन निर्ग्रन्थ संघ और यापनीयों का था । उत्तर भारत के ये आचार्य भी उत्तर नामान्त के कारण उनकों सेनसंघ का मान लिया है । यद्यपि यापनीय और कर्नाटक तक की यात्रायें करते थे । सिद्धसेन यदि दक्षिण भारतीय दिगम्बर ग्रन्थों में जहाँ उनका उल्लेख हुआ है वहाँ उनके गण या संघ ब्राह्मण भी रहे हों तो इससे यह फलित नहीं होता है कि वे यापनीय थे। का कोई उल्लेख नहीं है । कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य उत्तर भारत की निम्रन्थ धारा, जिससे श्वेताम्बर और यापनीयों का विकास सुस्थित के पाँच प्रमुख शिष्यों में स्थविर विद्याधर गोपाल एक प्रमुख हुआ है, का भी विहार दक्षिण में प्रतिष्ठानपुर अर्थात् उत्तर पश्चिमी शिष्य थे। उन्हीं से विद्याधर शाखा निकली । यह विद्याधर शाखा कोटिक कर्नाटक तक निर्बाध रूप से होता रहा है । अत: सिद्धसेन का गण की एक शाखा थी। हमारी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इसी विद्याधर कर्नाटकीय ब्राह्मण होना उनके यापनीय होने का प्रबल प्रमाण नहीं माना शाखा में हुए हैं । परवर्ती काल में गच्छ नाम प्रचलित होने के कारण जा सकता है। ही प्रबन्धों में इसे विद्याधर गच्छ कहा गया है। मेरी दृष्टि में इतना मानना ही पर्याप्त है कि सिद्धसेन कोटिक कल्पसूत्र स्थविरावली में सिद्धसेन के गुरू आर्य वृद्ध का भी गण की उस विद्याधर शाखा में हुए थे जो कि श्वेताम्बर और यापनीयों उल्लेख मिलता है । इस आधार पर यदि हम विचार करें तो आर्य वृद्ध की पूर्वज है। का काल देवर्धिगणि से चार पीढ़ी पूर्व होने के कारण उनसे लगभग (६) पुनः कुन्दकुन्द के ग्रन्थों और वट्टकेर के मूलाचार की जो १२० वर्ष पूर्व रहा होगा अर्थात् वे वीर निर्वाण सम्वत् ८६० में हुए सन्मतिसूत्र से निकटता है, उसका कारण यह नहीं है कि सिद्धसेन होंगे। इस आधार पर उनकी आर्य स्कंदिल से निकटता भी सिद्ध हो दक्षिण भरत के वट्टकेर या कुन्दकुन्द से प्रभावित हैं । अपितु स्थिति जाती है, क्योंकि माथुरी वाचना का काल वीर निर्वाण सं० ८४० माना इसके ठीक विपरीत है । वट्टकेर और कुन्दकुन्द दोनों ही ने प्राचीन जाता है, इस प्रकार उनका काल विक्रम की चौथी शताब्दी निर्धारित आगमिक धारा और सिद्धसेन का अनुकरण किया है । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों होता है । मेरी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इन्हीं आर्य वृद्ध के शिष्य रहे में त्रस-स्थावर का वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्षमार्ग की कल्पना आदि पर होंगे। अभिलेखों के आधार पर आर्य वृद्ध कोटिक गण की व्रजी शाखा आगमिक धारा का प्रभाव स्पष्ट है, चाहे यह यापनीयों के माध्यम से ही के थे । विद्याधर शाखा भी इसी कोटिक गण की एक शाखा थी । गण उन तक पहुँचा हो। मूलाचार का तो निर्माण ही आगमिक धारा के की दृष्टि से तो आर्य वृद्ध और सिद्धसेन एक ही गण के सिद्ध होते हैं, नियुक्ति और प्रकीर्णक साहित्य के आधार पर हुआ है। उस पर सिद्धसेन किन्तु शाखा का अन्तर अवश्य विचारणीय है । सम्भवत: आर्य वृद्ध का प्रभाव होना भी अस्वाभाविद नहीं है। आचार्य जटिल के वरांगचरित सिद्धसेन के विद्यागुरू हों, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य सिद्धसेन में भी सन्मति की अनेक गाथाएँ अपने संस्कृत रूपान्तर में प्रस्तुत हैं। का सम्बन्ध उसी कोटिकगण से है जो श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही यह सब इसी बात का प्रमाण है कि ये सभी अपने पूर्ववर्ती-आचार्य परम्पराओं का पूर्वज है। ज्ञातव्य है कि उमास्वाति भी इसी कोटिक गण सिद्धसेन से प्रभावित हैं। की उच्चनागरी शाखा में हुए थे। प्रो० उपाध्ये का यह मानना कि महावीर का सन्मतिनाम कर्नाटक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211118
Book TitleTarkik Shiromani Acharya Siddhasen Diwakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
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