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________________ तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर' ६५७ प्राकृत में लिखा जाना ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि सिद्धसेन अपनी परम्परा का मानते हुए ही उनके इस विरोध का निर्देश किया है, यापनीय या दिगम्बर नहीं हैं। वे या तो श्वेताम्बर हैं या फिर उत्तर भारत कभी उन्हें भिन्न परम्परा का नहीं कहा है । दूसरे, यदि हम सन्मतिसूत्र की उस निर्ग्रन्थ धारा के सदस्य हैं, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि वे आगमों के आधार पर ही अपने मत विकसित हुए हैं। किन्तु वे दिगम्बर तो किसी भी स्थिति में नहीं हैं। की पुष्टि करते थे। उन्होंने आगम मान्यता के अन्तर्विरोध को स्पष्ट करते सिद्धसेन का सन्मतिसूत्र एक दार्शनिक ग्रन्थ है और उस काल हुए सिद्ध किया है कि अभेदवाद भी आगमिक धारणा के अनुकूल है। तक स्त्री-मुक्ति और केवली-भुक्ति जैसे प्रश्न उत्पन्न ही नहीं हुए थे। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि आगम के अनुसार केवलज्ञान सादि और अतः सन्मतिसूत्र में न तो इनका समर्थन है और न खण्डन ही । इस अनन्त है, तो फिर क्रमवाद सम्भव नहीं होता है क्योंकि केवल काल में उत्तरभारत में आचार और विचार के क्षेत्र में जैन संघ में विभिन्न ज्ञानोपयोग समाप्त होने पर ही केवल दर्शनोपयोग हो सकता है । वे मान्यताएँ जन्म ले चुकी थीं, किन्तु अभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण लिखते हैं कि सूत्र की आशातना से डरने वाले को इस आगम वचन श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय आदि रूपों में नहीं हो पाया था। यह वह पर भी विचार करना चाहिए। वस्तुत: अभेदवाद के माध्यम से वे, उन्हें युग था जब जैन परम्परा में तार्किक चिन्तन प्रारम्भ हो चुका था और आगम में जो अन्तर्विरोध परिलक्षित हो रहा था, उसका ही समाधन कर धार्मिक एवं आगमिक मान्यताओं को लेकर मतभेद पनप रहे थे। रहे थे। वे आगमों की तार्किक असंगतियों को दूर करना चाहते थे और सिद्धसेन का आगमिक मान्यताओं को तार्किकता प्रदान करने का प्रयत्न उनका यह अभेदवाद भी उसी आगमिक मान्यता की तार्किक निष्पत्ति है भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है । उस युग में श्वेताम्बर, दिगम्बर और जिसके अनुसार केवलज्ञान सादि किन्तु अनन्त है। वे यही सिद्ध करते यापनीय ऐसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे । श्वेताम्बर एवं हैं कि क्रमवाद भी आगमिक मान्यता के विरोध में है। यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में स्पष्ट नाम निर्देश के साथ जो सर्वप्रथम (३) प्रो० उपाध्ये का यह कथन सत्य है कि सिद्धसेन दिवाकर उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे लराभग ई० सन् ४७५ तदनुसार विक्रम का केवली के ज्ञान और दर्शन के अभेदवाद का सिद्धान्त दिगम्बर सं० ५३२ के लगभग अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी पूर्वार्ध के हैं। परम्परा के युगपद्वाद के अधिक समीप है । हमें यह मानने में भी कोई अत: सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता आपत्ति नहीं है कि सिद्धसेन के अभेदवाद का जन्म क्रमवाद और क्योंकि उस युग तक न तो सम्प्रदायों का नामकरण हुआ था और न ही युगपद्वाद के अन्तर्विरोध को दूर करने हेतु ही हुआ है किन्तु यदि वे अस्तित्व में आये थे। मात्र गण, कुल, शाखा आदि का ही प्रचलन सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर या यापनीय होते तो उन्हें सीधे रूप में था और यह स्पष्ट है कि सिद्धसेन विद्याधर शाखा (कुल) के थे। युगपद्वाद के सिद्धान्त को मान्य कर लेना था, अभेदवाद के स्थापना की क्या आवश्यकता थी? वस्तुत: अभेदवाद के माध्यम से वे एक ओर क्या सिद्धसेन यापनीय हैं ? केवलज्ञान के सादि-अनन्त होने के आगमिक वचन की तार्किक सिद्धि प्रो० ए०एन० उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के सन्दर्भ करना चाहते थे, वहीं दूसरी ओर क्रमवाद और युगपद्वाद की विरोधी में जो तर्क दिये हैं१३, यहाँ उनकी समीक्षा कर लेना भी अप्रासंगिक नहीं अवधारणाओं को समन्यव भी करना चाहते थे। उनका क्रमवाद और होगा। युगपद्वाद के बीच समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से यह सूचित (१) उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि सिद्धसेन दिवाकर के लिए करता है कि वे दिगम्बर या यापनीय नहीं थे। यहाँ यह प्रश्न उठाया आचार्य हरिभद्र ने श्रुतकेवली विशेषण का प्रयोग किया है और श्रुतकेवली जा सकता है कि यदि सिद्धसेन ने क्रमवाद की श्वेताम्बर और युगपद्वाद यापनीय आचार्यों का विशेषण रहा है । अत: सिद्धसेन यापनीय हैं। इस की दिगम्बर मान्यताओं का समन्वय किया है, तो उनका काल सम्प्रदायों सन्दर्भ में हमारा कहना यह है कि श्रुतकेवली विशेषण न केवल यापनीय के अस्तित्व के बाद होना चाहिए । इस सम्बन्ध में हम यह स्पष्ट कर परम्परा के आचार्यों का अपितु श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आचार्यों का देना चाहते है कि इन विभिन्न मान्यताओं का विकास पहले हुआ है और भी विशेषण रहा है। यदि श्रुतकेवली विशेषण श्वेताम्बर और यापनीय बाद में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में किसी सम्प्रदाय विशेष ने दोनों ही परम्पराओं में पाया जाता है तो फिर यह निर्णय कर लेना कि किसी मान्यता विशेष को अपनाया है। पहले मान्यताएँ अस्तित्व में सिद्धसेन यापनीय हैं उचित नहीं होगा। आयीं और बाद में सम्प्रदाय बने । युगपद्वाद भी मूल में दिगम्बर मान्यता (२) आदरणीय उपाध्ये जी का दूसरा तर्क यह है कि सन्मतिसूत्र नहीं है, यह बात अलग है कि बाद में दिगम्बर परम्परा ने उसे मान्य का श्वेताम्बर आगमों से कुछ बातों में विरोध है । उपाध्ये जी के इस कथन रखा है। युगपद्वाद का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताम्बर कहे जाने वाले उमास्वाति में इतनी सत्यता अवश्य है कि सन्मतिसूत्र की अभेदवादी मान्यता का के तत्त्वार्थधिगमभाष्य में है५ । सिद्धसेन के समक्ष क्रमवाद और श्वेताम्बर आगमों से विरोध है । मेरी दृष्टि से यही एक ऐसा कारण रहा युगपद्वाद दोनों उपस्थित थे । चूंकि श्वेताम्बरों ने आगम मान्य किए थे है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने प्रबन्धों में उनके सन्मतितर्क का इसलिए उन्होंने आगमिक क्रमवाद को मान्य किया । दिगम्बरों को उल्लेख नहीं किया है। लेकिन मात्र इससे वे न तो आगम विरोधी सिद्ध आगम मान्य नहीं थे अत: उन्होंने तार्किक युगपद्वाद को प्रश्रय दिया । होते हैं और न यापनीय ही । सर्वप्रथम तो श्वेताम्बर आचार्यों ने उन्हें अत: यह स्पष्ट है कि क्रमवाद एवं युगपद्वाद की ये मान्यताएँ साम्प्रदायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211118
Book TitleTarkik Shiromani Acharya Siddhasen Diwakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
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