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________________ जैन संस्कृति का आलोक उसके बाद एक दिन 'धर्मसेन' नाम का कपट संन्यासी पेट दर्द का बहाना बनाकर एकदम चिल्लाने लगा। जैन साधु गण वास्तव में दर्द समझकर मणि-मंत्र-औषधि के द्वारा चिकित्सा करने लगे, दर्द शांत नहीं हुआ, बढ़ता ही गया। वह जोर-जोर से चिल्लाकर रोता था। वास्तव में पेट दर्द होता तो चिकित्सा से ठीक हो जाता। यह तो मायाचार था। कैसे शांत होता? जैन साधुगण असमंजस में पड़ गये। क्या किया जाय ? इतने में यह समाचार सुनकर धर्मसेन की बहन तिलकवती आयी। भाई को तसल्ली दी और कहने लगी कि शैव धर्म को छोड़ने से ही यह हालत हुई। तुम पर भगवान् शिवजी का कोप है। यह सब उनकी माया है। घबराओ मत। मैं शिवजी की विभूति (राख) लायी हूं। उसे शिवजी का नाम लेकर पेट पर लगाओ। सब ठीक हो जायेगा। ऐसा ही लगाया गया। फौरन दर्द ठीक हो गया। अर्थात ठीक हो जाने के बाद यह नाटक का पहला दृश्य था। फिर लोगों में यह प्रचार श कर दिया कि जो पेट दर्द जैनों के मणि-मंत्र औषधि आदि से ठीक नहीं हो सका ऐसा भयंकर दर्द शिवमहाराज की राख से एक क्षण में ठीक हो गया। देखो, शिवजी की महिमा । इस तरह शिव की महिमा के बारे में खूब प्रचार करने लगे। कपट संन्यासी के रूप में जो 'धर्मसेन' था वह जैन धर्म को छोड़कर फिर से शैव धर्म में आ गया और 'अप्पर' के नाम से शैव भक्तों में प्रधान बन गया। इस तरह यह पहला नाटक था। उन लोगों का प्रचार यह था कि जो कुछ भी कर लो परवाह नहीं परंतु शिवजी की भक्ति अवश्य करना। शिवजी सबको क्षमा कर देंगे। लोग अपनी दिक्कत से मुक्त हो जाएंगे। जैनों के ज्ञानमार्ग में कुछ नहीं है। केवल आचरण पर जोर देते रहते हैं। ढोंगी हैं और मायाचारी हैं। उन लोगों की बात पर विश्वास करना नहीं। इस तरह उन लोगों का प्रचार होता था। ___कापालिकों का यहाँ तक हद से ज्यादा प्रचार था कि "जितना भी भोग कर लो परवाह नहीं शैव भक्त होकर शिवजी की भक्ति करने लग जाय तो भगवान् शिवजी क्षमा कर देंगे।"२ “ललाट पर राख लगाओ और रुद्राक्ष (एक फल की माला) गले में रहे तो काफी है। अन्य कोई आचारविचार के ऊपर ध्यान देते फिरने की जरूरत नहीं।" इस . तरह भक्तिमार्ग पर जोर देते हुए प्रचार करने लगे। साधारण प्रजा कछ नहीं समझती थी। जो मार्ग आसान रहता है जिसमें कठिनाई नहीं है उसे अपनाने लग जाती थी। इस तरह भक्तिमार्ग का प्रचार करने के साथ-साथ जैन मन्दिरों के जिनेंद्र भगवान् को हटाकर बलात्कार के साथ शिवलिंगजी की स्थापना करते जाते थे। जहाँ कहीं इस तरह जबरदस्ती से मन्दिरी को परिवर्तित किया गया था, उक्त गांव के नाम आज भी जैनत्व को जता रहे हैं। जैसे अरहन्तनल्लूर जिनप्पल्लिर आदि । अप्पर (तिरुनावुक्करसु) के साथ संबंधन नाम का व्यक्ति मिला हुआ तो था ही। इन दोनों का विचार यह था कि किसी न किसी तरह से आचार्य वसुनन्दि द्वारा स्थापित मूलसंघ को खतम करना है। उक्त संघ की शाखा तमिलनाड भर में फैली हुई थी। जैन धर्मावलम्बियों पर उनका प्रभुत्व था। वे (जैन लोग) मरते दम तक तर्कवाद करते थे। वे तर्कशास्त्र में निपुण थे इसलिए उन शैव भक्तों का विचार यह था कि उन्हें (जैन तर्कवादियों को) जीतना है तो कपट व्यवहार से जीत सकते हैं न कि तर्कवाद से । इसका रास्ता क्या है ? इसे ढूँढना आवश्यक है। यह कापालिक शैवों का विचार था। १. तमिलरवीच्चि पेज नं १६, २. तमिलरवीचि पेज नं २५ ३. तमिलवीचि पेज नं ३४, २ | तमिलनाडु में जैन धर्म १२३ Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211109
Book TitleTamilnadu me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMallinath Jain
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size2 MB
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