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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि हम देखते हैं कि दुनियाँ के अंदर धर्म के नाम पर नीति प्रधान सदाचार का प्रचार होवे तो उसे भी अन्य धर्म वाले सहन नहीं करते चाहे न्याय हो अथवा अन्याय हो, किसी न किसी तरह से उस धर्म का समूल नष्ट करने के लिए उतारू हो जाएंगे। उसके लिए राज्यसत्ता की जरूरत पड़े तो उसे भी अपनी तरफ खींचने के लिए तैयार हो जाएंगे। बस, यही हालात तमिलनाडु में जैन धर्म की हुई थी । जैन धर्मोन्नति के समय में शैव-वैष्णव धर्म उतनी उन्नति पर नहीं थे। तमिलनाडु में जैन धर्म को गिराने में शैव धर्म वाले आगे रहे। वैसे ही कर्नाटक में वैष्णव धर्म वाले आगे रहे। पहले शैव धर्म में भी हिंसा का जोर नहीं था बाद में कापालिक वाममार्ग के लोग आकर घुसे । वे लोग हिंसामय क्रियाकांड पर जोर देने लगे। जैन लोग हिंसा के विरोधी थे ही। इसलिए जैन लोगों को अलग करने एवं नीचा दिखाने की दृष्टि से वेद को आधार शिला बनाकर जैन लोगों को अविरत, अन्यविरत, अयज्ञ, अतांत्रिक आदि शब्दों के द्वारा खण्डन करने साथ मांसाहार की पुष्टि करते रहे । साथ उन लोगों का विचार यह था कि साधारण जनता को अपनी तरफ खींचना है । वह सदाचार को बोझ सा समझती है। मांस खाना, मदिरा पीना, भोग भोगना और मनमानी चलाना यह सब के लिए इष्ट है । इस पर नियंत्रण रखना साधारण लोगों के लिए एक तरह बोझ (Burden) है । इस तांत्रिकवाद को वे लोग अच्छी तरह समझते थे अतः उन लोगों का प्रचार इस तरह होने लगा कि देवताओं के नाम पर बलि देना । धर्मशास्त्र के अनुसार अनुचित नहीं है बल्कि उचित ही है । शिवजी ने नरबलि चाही । देखो, इसका आधार तिरुतोण्ड नायनार पुराण है । मांस खाना अनुचित नहीं है क्योंकि शिवजी ने कण्णप्प १ तमिलरवीच्चि पेज नं १० १२२ Jain Education International नायनार से दिये हुए मांस को खाया । ' कापालिक लोगों के संबंध होने के बाद ही शैव धर्म में कमियाँ आने लगी । कापालिक लोगों को मदिरा पीना, मांस खाना, भोग भोगना सर्वसाधारण था । अतः कुछ लोग प्रजा को अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहे थे । उस समय जैनधर्म का जोर था । तिरुक्कुरल, नालडियार, अरनेरिच्चारं आदि आचार ग्रंथों का प्रचार होने से कापालिक उन्हें अपने मार्ग पर खींचने में असमर्थ हो रहे थे । उसके बाद उन लोगों ने एक नाटक खेला। एक व्यक्ति के दो बच्चे थे एक लड़का एक लड़की । लड़के का नाम था तिरुनावुक्कर और लड़की का नाम था तिलकवती । तिरुनावुक्कर बड़ा हुआ, उसका कापालिक मार्ग पर आदर भाव था । संबंधन नाम का एक व्यक्ति था । उसको भी कापालिक मार्ग में आदर भाव था इसलिए संबंधन और तिरुनावुक्करसु दोनों मिलकर षड्यंत्र रचने लगे। उन लोगों की योजना यह थी कि तिरुनावुक्करसु को कपटी जैन संन्यासी बनाया जाय तथा उसे पाटलीपुत्र ( तिरुषापुलियुर) जैन मठ में शामिल करा दिया जाय। उसका जैन साधु के बराबर सारा आचरण रहे। फिर क्या करना है ? उसे पीछे से बताया जायेगा । इस कूटनीति के अनुसार तिरुनाबुक्कर को कपटी जैन संन्यासी बनवाकर पाटलीपुत्र के जैन मठ में प्रवेश कराया। जैन साधु होने के बाद उसका नाम “धर्मसेन ” रखा गया। जैन साधुगण मायाचार से दूर रहने वाले थे । उनको इन लोगों का कपट व्यवहार मालूम नहीं था । वे लोग धर्मसेन को सच्चा साधु समझते थे । कुछ दिन ऐसा चलता रहा। संबंधन और तिलकवती ( तिरुनावुक्करसु की बहन ) दोनों इस पर निगरानी रखते थे । For Private & Personal Use Only तमिलनाडु में जैन धर्म www.jainelibrary.org
SR No.211109
Book TitleTamilnadu me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMallinath Jain
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size2 MB
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