________________ प्रमाणका स्वरूप और उसके भेद स्व तथा अपूर्व अर्थके यथार्थ निश्चय कराने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं / किसी पदार्थको जाननेका प्रयोजन यह होता है कि तद्विषयक अज्ञानको निवृत्ति हो और उसकी जानकारी हो। जानकारी होनेके उपरान्त प्रमाता उपादेयका उपादान, हेयका त्याग और उपेक्षणोयको उपेक्षा करता है / इस प्रकार प्रमाणका साक्षात्फल अज्ञाननिवृत्ति और परम्पराफल हानोपादानोपेक्षाबुद्धि है। यह दोनों प्रकारका फल स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान द्वारा ही संभव है / अतः जैनदर्शनमें स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाण माना गया है। इसके मूल में दो भेद हैं-१ प्रत्यक्ष और 2 परोक्ष / प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-१ सांव्यवहारिक और 2 पारमार्थिक / परोक्ष प्रमाणके पाँच भेद हैं-१ स्मृति, 2 प्रत्यभिज्ञान, 3 तर्क, 4 अनुमान और 5 आगम / प्रमाणके ये दार्शनिक भेद हैं। आगमकी अपेक्षा उसके पाँच भेद है-१ मति, 2 श्रुत, 3 अवधि, 4 मनःपर्याय और 5 केवल / इस प्रकार प्रमाण और नय दोनों ही वस्तुप्रतिपत्तिके अमोघ साधन हैं-उपाय हैं। - 233 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org