Book Title: Gyapaktattva Vimarsh
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 1
________________ ज्ञापकतत्त्व-विमर्श तत्त्व और उसके भेद जैन दर्शनमें सद, वस्तु, अर्थ और तत्त्व ये चारों शब्द एक ही अर्थके बोधक माने गये हैं। सद् या वस्तु अथवा अर्थके कहनेसे जिसकी प्रतीति होती है उसीका बोध तत्त्वके द्वारा होता है । इसके दो भेद हैं१ उपेय और २ उपाय । प्राप्यको उपेय और प्रापकको उपाय तत्त्व कहा जाता है। उपेय तत्त्वके भी दो भेद है-१ कार्य और २ ज्ञेय । उत्पन्न होनेवाली वस्तु कार्य कही जाती है और ज्ञापककी विषयभूत वस्तु ज्ञेयके नामसे अभिहित होती है। इसी प्रकार उपायतत्त्व भी दो प्रकारका है-१ कारक और २ ज्ञापक । जो कार्यको उत्पन्न करता है वह कारक उपायतत्त्व कहा जाता है और जो ज्ञेयको जानता है वह ज्ञापक उपायतत्त्व है। तात्पर्य यह है कि वस्तुप्रकाशक ज्ञानज्ञापक उपायतत्त्व है तथा कार्योत्पादक उद्योग-दैव आदि कारक उपायतत्त्व है। प्रकृतमें हमें ज्ञायकतत्त्वपर प्रकाश डालना अभीष्ट है । अतएव हम कारकतत्त्वकी चर्चा इस निबन्धमें नहीं करेंगे । इसमें केवल ज्ञापक उपायतत्त्वका विवेचन करना अभीष्ट है। ज्ञापक उपायतत्त्व : प्रमाण और नय प्रमाण और नय ये दोनों वस्तुप्रकाशक है। अतः ज्ञापक उपायतत्त्व दो प्रकारका है-१ प्रमाण और २ नय । आचार्य गृद्ध पिच्छने, जिन्हें उमास्वामी और उमास्वाति भी कहा जाता है, अपने तत्त्वार्थ सूत्रमें स्पष्ट कहा है कि 'प्रमाणनयरधिगमः' [त० सू० १-६]-प्रमाणों और नयोंके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान होता है। अतः जैनदर्शनमें पदार्थों को जाननेके दो ही उपाय प्रतिपादित एवं विवेचित हैं और वे हैं प्रमाण तथा नय । सम्पूर्ण वस्तुको जानने वाला प्रमाण है और वस्तुके धर्मो-अंशोंका ज्ञान कराने वाला नय है । द्रव्य और पर्याय अथवा धर्मी और धर्म । अंशी और अंश दोनोंका समुच्चय वस्तु है । प्रमाण और नयका भेद प्रमाण जहाँ वस्तुको अखण्ड रूपमें ग्रहण करता है वहाँ नय उसे खण्ड-खण्ड रूपमें विषय करता है। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि ज्ञापक तो ज्ञानरूप ही होता है और प्रमाण ज्ञानको कहा गया है । 'स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्', 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' आदि सिद्धान्तवचनों द्वारा ज्ञानको प्रमाण ही बतलाया गया है, तब नयको ज्ञापक-प्रकाशक कैसे कहा ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि प्रमाण और नय ये दो भेद विषयभेदकी अपेक्षा किये गये हैं। वास्तवमें नय प्रमाणरूप है, प्रमाणसे वह भिन्न नहीं है । जिस समय ज्ञान पदार्थोंको अखण्ड-सकलांशरूपमें ग्रहण करता है तब बह प्रमाण कहा जाता है और जब उनके सापेक्ष एकांशको ग्रहण करता है तब वह ज्ञाननय कहलाता है । छद्मस्थ ज्ञाता जब अपने आपको वस्तुका ज्ञान करानेमें प्रवृत्त होता है तो उसका ज्ञान स्वार्थप्रमाण कहा जाता है और ऐसे ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल पाँचों ज्ञान है। किन्तु जब वह दूसरोंको समझाने के लिए वचन-प्रयोग करता है तब उसके वचनोंसे जिज्ञासुको होनेवाला वस्तुके धर्मों-अंशोंका ज्ञान परार्थश्रुत ज्ञान कहलाता है और उसके वे -२३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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