Book Title: Gyapaktattva Vimarsh Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 2
________________ वचन भी उपचारसे परार्थश्रुत ज्ञान माने जाते हैं। तथा वही प्रतिपत्ता उस वस्तुके धर्मोका स्वयं ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थश्रुतज्ञान है । आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि [१६] में उक्त प्रश्नका अच्छा समाधान किया है । उन्होंने लिखा है कि 'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वायं परार्थं च । तत्र स्वाथं प्रमाणं श्रुतवर्ज्जम् । श्रुतं पुनः स्वार्थं भवति परार्थं च । ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नया: । ' अर्थात् प्रमाण दो प्रकारका है -१ स्वार्थ और २ परार्थ । इनमें श्रुतको छोड़कर शेष सभी (मति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ) स्वार्थप्रमाण हैं । किन्तु श्रुत स्वार्थप्रमाण भी है और परार्थ प्रमाण भी है । ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ प्रमाण है और वचनात्मक श्रुत परार्थप्रमाण है । इसीके भेद नय हैं। पूज्यपादके इस विवेचनसे स्पष्ट है कि नय भी ज्ञानरूप हैं और श्रुतज्ञानके भेद हैं । विद्यानन्द ने भी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक [१६] में उक्त प्रश्नका सयुक्तिक समाधान किया है । वे कहते हैं कि नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, अपितु वह प्रमाणका अंश है । जिस प्रकार समुद्रसे लाया गया घड़े भर पानी न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रका अंश है । यथा नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः । नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता । समुद्र बहुत्वं वा स्यात्तच्चेत्क्वास्तु समुद्रवित् ॥ अतः नय प्रमाणरूप एवं ज्ञानरूप होनेपर भी छद्मस्थ ज्ञाता और वक्ताओंकी दृष्टिसे उनका पृथक् निरूपण किया गया है । संसारके सभी व्यवहार नयोंको लेकर ही होते हैं। प्रमाण अशेषार्थ ग्राहकरूपसे वस्तुका प्रकाशक - ज्ञापक है और नय वस्तुके एक-एक अंशोंके प्रकाशक - ज्ञापक हैं और इस प्रकार नय भी प्रमाणको तरह ज्ञापकतत्त्व है । आचार्य समन्तभद्रने भी आप्तमीमांसामें प्रमाण और नय दोनोंको वस्तुप्रकाशक कहा है तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते क्रमभावि च यज्ज्ञानं Jain Education International युगपत् सर्वभासनम् । स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥ 'सम्पूर्ण पदार्थों को युगपत् प्रकाशित करनेवाला तत्त्वज्ञान प्रमाणरूप है और क्रमसे होनेवाला छद्मस्थोंका ज्ञान स्याद्वादनयस्वरूप है ।' - त० श्लो० वा० पृ० ११८ । नयोंका वैशिष्ट्य ऊपर के विवेचनसे स्पष्ट है कि जैन दर्शन में नयोंका वही महत्त्वपूर्ण स्थान है जो प्रमाणका है । प्रमाण और नय दोनों जैन दर्शनकी आत्मा हैं । यदि नयको न माना जाय तो वस्तुका ज्ञान अपूर्ण रहने से जैन दर्शनकी आत्मा ( वस्तु - विज्ञान ) अपूर्ण रहेगी । वास्तवमें नय ही विविध वादों एवं प्रश्नोंके समाधान प्रस्तुत करते हैं । वे गुत्थियोंके सुलझाने तथा सही वस्तुस्वरूप बतलाने में समर्थ हैं। प्रमाण गूँगा है, बोल नहीं सकता और न विविध वादोंको सुलझा सकता है । अत: जैन दार्शनिकोंने मतान्तरोंका समन्वय करने के लिए नयवादका विस्तारके साथ प्रतिपादन किया है । वचनप्रयोग और लोकव्यवहार दोनों नयाश्रित हैं । विना नयका अवलम्बन लिए वे दोनों ही सम्भव नहीं हैं । अतः सभी दर्शनोंको इस नयवादको स्वीकार २३१ P For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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