________________ ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप | 71 मोक्षः कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानजः स्मृतः। ध्यानबीजं मतं तद्धि तस्मात्तद्धितमात्मनः / / -ज्ञाना. 259 एवं योगशास्त्र 4 / 113 इसी प्रकार महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्र का भी ज्ञानार्णव से घनिष्ठ सम्बन्ध है। शुभचन्द्र ने योगसूत्र के यम आदि पाठ अंगों का उल्लेख करके उनके स्थान पर जैनधर्म के अनुसार अन्य पारिभाषिक शब्द देने का प्रयत्न किया है। यम के समकक्ष बारह भावनाओं एवं . अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का निरूपण किया गया है। आजीवन व्रतों के पालन को यम एवं सीमित काल तक व्रतों के पालन को नियम कहा गया है। प्रासन का ध्यान के लिए दोनों परम्पराओं में प्रमुख स्थान है। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जिस प्रासन से मन में स्थिरता आये वही आसन योग्य है / प्राणायाम एवं प्रत्याहार को समान रूप में दोनों ग्रन्थों ने ध्यान की पुष्टता के लिए स्वीकारा है। धारणा के कार्य में दोनों में समानता है। योगसूत्र में चित्त की एकाग्रता को धारण करने को ध्यान कहा गया है / ज्ञानार्णव में इसी बात को प्रकारान्तर से निरूपित किया गया है कि संसर्ग से रहित होकर एक ही वस्तु का जो स्थिरतापूर्वक चिन्तन किया जाता है, उसका नाम ध्यान है एकचिन्तानुरोधो यस्तद्धयानं भावना: परा:। अथवा चिन्तन को अन्य विषयों की ओर से हटाकर किसी एक विषय की ओर लगाना ही ध्यान है ध्यानमाहुरपैकाग्रचिन्तारोधो बुधोत्तमाः। 23 / 14 योगसूत्र में जिसे समाधि कहा गया है, उसे ज्ञानार्णव में शुक्लध्यान कहा है। इस प्रकार यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो भारतीय योग-साधना के परिज्ञान के लिए ज्ञानार्णव का विषय विशेष महत्त्व का है। क्योंकि इसमें योग की कई परम्परामों एवं विधियों को सुरक्षित रखा गया है। ज्ञानार्णव में ध्यान के वर्णन के साथ-साथ प्रकारान्तर से जैन-साधना के कई अंगों का भी वर्णन हो गया है। ग्रन्थकार का यहां यह लक्ष्य प्रतीत होता है कि ध्यान का उपयोग सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए किया जाना चाहिए। वही प्राध्यात्मिक ध्यान परम आनन्द का स्रोत हो सकता है। -अध्यक्ष जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राज.) आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org