________________
पंचम खण्ड | ७०
हैं। इनसे दुःख ही मिलता है। प्रार्तध्यान का फल तिर्यंचगति की प्राप्ति कहा गया है।
अर्चनार्चन
दुष्ट अभिप्राय वाला प्राणी जब हिंसा, असत्य, चोरी, विषय-सेवन आदि में प्रानन्द मानने लगता है और इन्हीं कार्यों का चिंतन करता रहता है तो उसको रौद्रध्यान होता है। दूसरे के अपयश की अभिलाषा करना एवं दूसरों के गुणों व उपलब्धियों से ईर्ष्या करना रौद्रध्यान वाले व्यक्ति की पहिचान है। ऐसा व्यक्ति ज्ञान और विचारों से रहित होकर दूसरों को ठगने में लगा रहता है। ये पात एवं रौद्र ध्यान पापरूपी वक्षों की जड़ हैं, जिनके फलस्वरूप नरकादि के दुःख भोगने पड़ते हैं।'
ज्ञानार्णव में तीसरे धर्मध्यान को सवीर्यध्यान भी कहा गया है। मोह के अन्धकार से निकलकर संसारस्वरूप एवं प्रात्मस्वरूप का चिंतन करना धर्मध्यान है। प्रात्मस्वरूप का चिंतन कर योगी जब अपना ध्यान सिद्धात्मा में लगाता है और स्वयं अपने को भी परमात्मा बना लेता है तो वह शुक्लध्यानी कहलाता है। यही परम ध्यान है। भेद-विज्ञान से इस ध्यान की सिद्धि होती है।
प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने इस ग्रन्थ में अपने पूर्ववर्ती एवं समकालीन प्रमुख प्राचार्यों के ग्रन्थों से ध्यान विषयक सामग्री को प्रकारान्तर से ग्रहण किया है। ग्रन्थ के सम्पादक पं. बालचन्दजी शास्त्री ने अपनी भूमिका में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उससे ज्ञात होता है कि शुभचन्द्र बहुश्रत विद्वान एवं योगी आचार्य थे। प्राचार्य रामसेन के तत्त्वानुशासन और ज्ञानार्णव के विषय में पर्याप्त समानता है। ध्यान के भेद-प्रभेदों के विवेचन में शुभचन्द्र ने अधिक विस्तार किया है। मारुति, तेजसि, प्राप्या (वाणि) जैसी धारणाओं का यहाँ उल्लेख है तथा महामुद्रा, महामन्त्र, महामण्डल जैसे पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग है । पद्मसिंहमुनि द्वारा विरचित ज्ञानसार प्राकृत ग्रन्थ का विषय भी ज्ञानार्णव में समाया हुआ है। ज्ञानसार में प्रतीन्द्रिय, मन्त्र-तन्त्र से रहित, ध्येय-धारणा से विमुक्त ध्यान को 'शून्यध्यान' कहा गया है। ज्ञानार्णव में इसी शून्यध्यान को 'रूपातीत' ध्यान नाम दिया गया है। यथा
चिदानन्दमयं शुद्धममूर्त ज्ञानविग्रहम् ।
स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्र पातीतमिष्यते ॥ ३७१६ ज्ञानार्णव और प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के विषय में ही नहीं, उसके प्रस्तुतीकरण में भी अपूर्व समानता है। ज्ञानार्णव में ध्यान विषयक सामग्री कुछ बिखरी हुई एवं विस्तृत है, जबकि योगशास्त्र में सरल ढंग से सुबोध शैली में ध्यान का निरूपण किया गया है। विद्वानों का मत है कि योगशास्त्र परवर्ती ग्रन्थ है। ध्यान को मोक्ष का आधारभूत कारण मानने में दोनों प्राचार्यों का मत एक है। वे मानते हैं कि मोक्ष कर्मों के क्षय से होता है । वह कर्मों का क्षय पात्मज्ञान से सम्भव है और वह प्रात्मज्ञान ध्यान के माध्यम से प्राप्त होता है। यथा
१. ज्ञानार्णव २४।४१-४२ २. अमी जीवादयो भावाश्चिदचिल्लक्ष्मलांछिताः।
तत्स्वरूपाविरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभिः ।। २८।१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org