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जैनधर्म में ईश्वरविषयक मान्यता
विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया साहित्यालंकार, एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट्, निदेशक : जैन शोध अकादमी
श्रमण और ब्राह्मण नामक संस्कृतियों का समीकरण प्राचीन भारतीय संस्कृति के रूप को स्वरूप प्रदान करता है । श्रमण संस्कृति में जैन और बौद्ध संस्कृतियां समाहित हैं जबकि ब्राह्मण संस्कृति में केवल वैदिक संस्कृति का अभिप्राय विद्यमान है। इस प्रकार वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृतियाँ मिलकर भारतीय संस्कृति को स्थिर करती हैं। वैदिक वाङमय को वेद, बौद्ध वाङ्मय को त्रिपिटक तथा जैन वाङमय को आगम की संज्ञाएं प्राप्त हैं। वैदिक और जैन संस्कृतियों में ईश्वर समादत है किन्तु बौद्ध संस्कृति में ईश्वरविषयक मान्यता का सर्वथा निषेध है। यहां जैन धर्म में ईश्वरविषयक मान्यता पर संक्षेप में चर्चा करना हमें अभीप्सित है।
परमात्मा अथवा ईश्वर एक ही अर्थ-अभिप्राय के लिए प्रयोग में आने लगा है। जैन धर्म में ईश्वर तो है पर वह एक नहीं है। अनेक हैं ईश्वर। जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक प्रात्मा अपनी स्वतन्त्र सत्ता को लिए हुए है और वह मुक्त भी हो सकता है। अनन्त आत्माएँ मुक्ति प्राप्त कर चुकी हैं और प्राज भी मुक्त्यर्थ सन्मार्ग खुला हुआ है और सदा-सर्वदा खुला रहेगा। दरअसल ये मुक्त जीव ही जैन धर्म के ईश्वर हैं। (१) जो मुक्त प्रात्माएँ मुक्त होने से पूर्व संसार को मुक्ति-मार्ग का बोध कराती हैं, उन्हें तीर्थंकर कहा गया है। (२) तीर्थंकर किसी अंशी के अंश रूप अथवा अवतार रूप नहीं हैं। संसारी जीवों में से ही कोई जीव जब सम्यक् तप और संयम-साधना करते हुए लोक-कल्याण की भावना से तीर्थंकर पद प्राप्त करता है । वह जीव जब माता के गर्भ में आता है तब उसकी माता को विशिष्ट स्वप्न दिखलाई देते हैं। इनके जीवन की पांच प्रमुख घटनाएँ होती हैं, जिन्हें कल्याणक कहा जाता है। गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, दीक्षा-तप कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक, ये हैं पाँच कल्याणक । (३) विचार करने योग्य बात यह है कि तीर्थंकर को अर्हत् भी कहा गया है। हिन्दू पुराणों में अर्हत् किसी व्यक्तिवाची संज्ञा के रूप में ग्रहण किया गया है । फलस्वरूप अर्हत् नामक व्यक्ति द्वारा ही जैन धर्म की स्थापना करने वाला निरूपित किया गया है। यह धारणा सम्यक् और शुद्ध नहीं है । यह अर्हत् किसी व्यक्ति का नाम नहीं है अपितु पदविशेष है। (४) इस पद को प्राप्त कर स्वयं कषायमुक्त होकर संसार के कल्याण-मार्ग को प्रशस्त करते हैं। कषायमुक्त आत्माएँ जिन कहलाती हैं, जिनकी वाणी को जिनवाणी-पागम की संज्ञा प्रदान की गई। जिन-धर्म को जैन धर्म और जैन धर्म के माननेवालों को जैन कहा गया है। जीवनमुक्त तीर्थंकर अथवा अर्हत् में अनन्त चतुष्टय मुखर हो उठते हैं अर्थात् अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख उनमें जागरित हो उठता है। ऐसी मुक्त आत्माएँ वस्तुत: भगवान् अथवा ईश्वर होती हैं । संसारी प्रात्मा के पास सत्ता भी है और चेतना भी है । यदि उसके पास कुछ कमी है तो वह है केवल स्थायी सुख एवं
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