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________________ चतुर्थ खण्ड | ३०२ २. दो भेवः--सिद्ध और संसारी-जो आत्माएँ कर्मरहित हो व शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो चुकी हों वे सिद्ध कहलाती हैं और जो कर्म सहित हैं वे संसारी हैं । ३. तीन भेदः-(i) बहिरात्मा:-जो प्रात्मस्वरूप को न समझ शरीर को ही प्रात्मा मानते हैं,विषय भोगों में लगे रहते हैं, जो 'जीवेत् यावद्' सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । . भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ।।" के सिद्धान्त को मानते हैं और तत्त्व को यथार्थतः नहीं मानते हैं, वे सब बहिरात्मा हैं । यह आत्मा की हीनतम वैभाविक, और सुप्त दशा है । इसे एकान्त अज्ञान-दशा भी कहते हैं । (ii) अन्तरात्मा-जो मिथ्यात्व की भाव-निद्रा से जाग्रत हो स्व-स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित होती हैं, जिनमें सत्य, असत्य, धर्म, अधर्म का विवेक जाग्रत होता है और जो शरीर व आत्मा को भिन्न-भिन्न समझकर भेद ज्ञान का अनुभव करती हैं वे आत्माएँ अन्तरात्मा की श्रेणी में आती हैं। ऐसी आत्माएँ यथाशक्ति आत्मसाधना व धर्म में प्रवृत्त भी होती हैं। सम्यग्दृष्टि श्रावक श्राविकाएँ व छद्मस्थ साधु साध्वी सब इस के अर्न्तगत होते हैं। (iii) परमात्मा-परमात्मा का अर्थ है परम (पूर्ण रूप से) उत्कृष्ट आत्मा । आत्मसाधना से जो पात्माएं घाती कर्मों का क्षय कर प्रात्मविकास की सर्वोच्च भूमिका को प्राप्त होती हैं, वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो 'परमात्मस्वरूप' हो जाती हैं। जब अवशेष चार अघाती कर्म क्षय हो जाते हैं तो सशरीर परमात्मा, अशरीरी बन निराकार परमात्मा-सिद्ध स्वरूप हो जाती हैं। इस प्रकार बहिरात्मा संसारी जीवन का, अन्तरात्मा साधक जीवन का और परमात्मा विशुद्ध दशा के प्रतीक रूप हैं। प्रत्येक बहिरात्मा (भव्यात्मा) साधना करते-करते जीवन विकास कर अन्तरात्मा होकर अन्ततः राग द्वेष का क्षयकर परमात्मा बनने का अधिकारी है। इसलिए कहा गया है-'अप्पा सो परमप्पा ।' तीन भेद अन्य प्रकार से-(i) सिद्ध (ii) त्रस और (iii) स्थावर । (iv) चार भेद-(i) पुरुष वेदी (ii) स्त्री वेदी (ii) नपुंसक वेदी और (iv) भवेदी। (v) पाँच भेद-(i) नारक (ii) तिथंच (iii) मनुष्य (iv) देव (v) सिद्ध । (vi) छह भेद--(1) एकेन्द्रिय (i) द्वीन्द्रिय (iii) त्रीइन्द्रिय (iv) चतुरिन्द्रिय (v) पंचेन्द्रिय (vi) अनिन्द्रिय (सिद्ध) (vii) सात भेद -(i) पृथ्वी (i) अप् (पानी) (ii) तेजस् (अग्नि) (iv) वायु (v) वनस्पति (vi) त्रस, काय तथा (vii) अकाय सिद्ध । (vii) आठ भेद-(i) नारक (i) तिथंच (iii) तियंचनी (iv) यनुष्य (v) मनुष्यनी (vi) देव (vii) देवी और (viii) सिद्ध। (ix) नव भेद-(i) नारक (ii) तियंच (iii) मनुष्य मोर (iv) देव, ये चारों पर्याप्त और अपर्याप्त तथा नवम भेद सिद्ध । (x) बस भेद-पांच स्थावर (पृथ्वी, अप प्रादि), तीन विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय) पंचेन्द्रिय तथा दसवां भेद सिद्ध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211011
Book TitleJain Dharm me Atma Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJashkaran Daga
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Soul
File Size540 KB
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