________________ चतुर्थ खण्ड / 200 आकाश को कुछ दार्शनिकों ने स्वतंत्र द्रव्य माना है और कुछ ने नहीं माना। जिन्होंने उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है उनमें से किसी ने भी जैनदर्शन की तरह लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में नहीं माना / पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के इतिहास में "रिक्त प्राकाश है या नहीं" इस विषय पर काफी विवाद है, किन्तु इस ढंग के दो अलग-अलग विभाग वहाँ भी नहीं मिलते हैं। अद्धासमय परिवर्तन का जो कारण है उसे श्रद्धासमय या काल कहते हैं / काल की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है। द्रव्य का स्वजाति के परित्याग के विना वैससिक और प्रायोगिक विकाररूप परिणाम व्यवहारदृष्टि से काल को सिद्ध करता है। प्रत्येक द्रव्य परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए भी उसकी जाति का कभी विनाश नहीं होता / इस प्रकार के परिवर्तन परिणाम कहे जाते हैं / इन परिणामों का जो कारण है वह काल है / यह व्यवहार दृष्टि से काल की व्याख्या हुई / प्रत्येक द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षणभावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है। इस वर्तना का कारण काल है। यह काल की पारमार्थिक व्याख्या है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक वृत्ति वाला है। यह वृत्ति प्रतिक्षण रहती है / यही पारमार्थिक काल का कार्य है। काल का अर्थ है परिवर्तन / परिवर्तन को समझने के लिये अन्वय का ज्ञान होना आवश्यक है / अनेक परिवर्तनों में एक प्रकार का अन्वय रहता है / इसी अन्वय के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु में परिवर्तन हुा / यदि अन्वय न हो तो क्या परिवर्तन हुआ, किसमें परिवर्तन हुअा, इसका जरा भी ज्ञान नहीं हो सकता / इसी काल के आधार पर हम घंटा, मिनट, सेकण्ड आदि विभाग करते हैं / यह व्यावहारिक काल है / पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक है / क्षण-क्षण में पदार्थ में परिवर्तन होता रहता है, यह परिवर्तन बौद्ध सम्मत परिवर्तन की तरह ऐकान्तिक न होकर ध्रौव्ययुक्त है / इस प्रकार दोनों दृष्टियों से काल का लक्षण परिवर्तन है। काल असंख्यात प्रदेश प्रमाण होता है। ये प्रदेश एक अवयवी के प्रदेश नहीं हैं, अपितु स्वतन्त्र रूप से सत् है। इसीलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक काल प्रदेश बैठा हया है। रत्नों की राशि की तरह लोकाकाश के एक-एक काल प्रदेश पर जो एक-एक द्रव्य स्थित है वह काल है / वह असंख्यात द्रव्य प्रमाण है / इससे यह फलित होता है कि काल एक द्रव्य नहीं है, अपितु असंख्यात द्रव्य प्रमाण है / परिवर्तन की दृष्टि से यद्यपि काल के सभी प्रदेशों का एक स्वभाव है, तथापि वे परस्पर भिन्न हैं। वे सब मिलकर एक अवयवी का निर्माण नहीं करते / जिस प्रकार उपयोग सभी आत्माओं का स्वभाव है, किन्तु सभी आत्माएं भिन्न-भिन्न हैं, उसी प्रकार वर्तना लक्षण का साम्य होते हुए भी प्रत्येक काल भिन्न-भिन्न है / जीवत्व सामान्य को लेकर सभी आत्माओं को जीव कहा जाता है, उसी प्रकार कालत्व [वर्तना] सामान्य की दृष्टि से सभी कालों को काल कहा गया है / अतः काल वर्तनासामान्य की दृष्टि से असंख्यात हैं।' जैनदर्शन प्रतिपादित तत्त्व का यह विवेचन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। तत्त्व का ठीक स्वरूप समझे बिना अन्य विषयों का यथार्थ ज्ञान होना कठिन है। इसलिए तत्त्वज्ञान आवश्यक है। 1. कतिपय प्राचार्य काल को जीव और अजीव के पर्याय रूप में स्वीकार करते हैं। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु की विद्यमानता नहीं मानते / प्रागमों में छह द्रव्य स्वीकृत हैं किन्तु काल का विस्तृत विवेचन नहीं मिलता। -सम्पादक 01 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org