Book Title: Jain Darshan me Tattva Chintan
Author(s): Subhashmuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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________________ Jain Education International जैनदर्शन में वर-चिन्तन सुभाष मुनि 'सुमन' जैनाचार्य सत्, तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ, तत्त्वार्थ आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में करते रहे हैं। जैनदर्शन में तत्त्व - सामान्य के लिये इन सभी शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैनदर्शन तत्त्व और सत् को एकार्थक मानता है। द्रव्य और सत् में भी कोई भेद नहीं है, यह बात उमास्वाति के "सत् द्रव्यलक्षणम्" इस सूत्र से सिद्ध होती है । तत्त्व को चाहे सत् कहिये, चाहे द्रव्य कहिये । सत्ता सामान्य की दृष्टि से सब सत् है । इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हुये यह कहा गया है कि सब एक हैं, क्योंकि सब सत् हैं। इसी बात को दीर्घतमा ऋषि ने एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति सत् तो एक है किन्तु विद्वान् उसका कई प्रकार से वर्णन करते हैं— ऐसा कहा स्थानांगसूत्र में इसी सिद्धान्त को दूसरी तरह से समझाया गया है। वहाँ पर "एक आत्मा" और "एक लोक" की बात कही गयी है। " सत् का स्वरूप सत् के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए तत्वार्थ सूत्रकार ने कहा कि सत् उत्पाद व्यय और प्रोव्ययुक्त है। धागे जाकर इसी बात को, "गुण और पर्याय वाला द्रव्य है" इस प्रकार कहा । उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय आया और प्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन के सूचक हैं । घ्रौव्य नित्यता की सूचना देता है । गुण नित्यता वाचक है और पर्याय परिवर्तन सूचक किसी भी वस्तु के दो रूप होते हैं—एकता और अनेकता, निरयता और अनित्यता, स्थायित्व और परिवर्तनशीलता, सदृशता और विसदृशता । इनमें से प्रथम पक्ष ध्रौव्यसूचक है— गुण सूचक है। द्वितीय पक्ष उत्पाद व्यपसूचक है-पर्यायसूचक है। वस्तु के स्थायित्व में एकरूपता होती है, स्थिरता होती है। परिवर्तन में पूर्व रूप का विनाश होता है, उत्तर रूप की उत्पत्ति होती है । विनाश और उत्पत्ति के रहते हुए भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती और न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होती है । विनाश और उत्पाद के बीच एक प्रकार की स्थिरता रहती है । द्रव्य और पर्याय जैन साहित्य में द्रव्य शब्द का प्रयोग सामान्य के लिये भी हुआ है । जाति अथवा सामान्य को प्रकट करने के लिये द्रव्य और व्यक्ति अथवा विशेष को प्रकट करने के लिये पर्यायशब्द का प्रयोग किया जाता है । द्रव्य अथवा सामान्य दो प्रकार का है-तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य । एक ही काल में स्थित अनेक देशों में रहने वाले अनेक पदार्थों में जो समानता की अनुभूति होती है, वह तिर्यक् सामान्य है । जब कालकृत नाना अवस्थाओं में किसी द्रव्य का एकत्व या अन्वय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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