Book Title: Jain Darshan me Tattva Chintan Author(s): Subhashmuni Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 5
________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / १९८ पूरण अर्थात् वृद्धि और गल का अर्थ होता है गलन अर्थात हास । जो द्रव्य पूरण और गलन द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है वह पुद्गल है। पुद्गल के मुख्य चार धर्म होते हैंस्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण । पुद्गल के प्रत्येक परमाणु में ये चारों धर्म होते हैं । इनके जैनदर्शन में बीस भेद किए जाते हैं । स्पर्श के आठ भेद होते हैं-मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । रस के पाँच भेद होते हैं—तिक्त, कटुक, आम्ल, मधुर और कषाय । गन्ध दो प्रकार की है- सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध । वर्ण के पांच प्रकार हैं-नील, पीत, शुक्ल, कृष्ण और लोहित । ये बीस मुख्य भेद हैं। तरतमता के आधार पर इनका संख्यात प्रसंख्यात और घनन्त भेदों में विभाजन हो मकता है । पुद्गल के मुख्यतया दो भेद होते हैं-अणु और स्कन्ध । पुद्गल का वह अन्तिम भाग, जिसका फिर विभाग न हो सके, अणु कहा जाता है । एक अणु में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं । स्कन्ध श्रणुत्रों का समुदाय है । पुद्गल का कार्य 1 पुद्गल के कुछ विशिष्ट कार्य हैं ये कार्य हैं-शब्द, बन्ध, सौम्य स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, घातप और उद्योत संसारी आत्मा पुद्गल के बिना नहीं रह सकती। जब तक जीव संसार में भ्रमण करता है, तब तक पुद्गल और जीव का सम्बन्ध विच्छेद्य है । " वुद्गल शरीर निर्माण का उपादान कारण है। प्रौदारिक, वैक्रिय और ग्राहारकवर्गणा से क्रमश: प्रौदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर बनते हैं तथा श्वासोच्छ्वास का निर्माण होता है। तेजोवगंणा से तेजस शरीर बनता है। भाषावगंणा वाणो का निर्माण करती है मनोवर्गणा से मन का निर्माण होता है । कर्मवर्गणा से कार्मण शरीर बनता है ।" तिथंच और मनुष्य का स्थूल शरीर बौदारिक शरीर है। उदार अर्थात् स्थूल होने के कारण इसका नाम प्रदारिक है। रक्त, मांस आदि इस शरीर के लक्षण हैं । देवगति और नरकगति में उत्पन्न होने वाले जीवों के बैंकिय शरीर होता है। इन जीवों के अतिरिक्त लब्धिप्राप्त मनुष्य और तिर्यंच भी इस शरीर को प्राप्त कर सकते हैं। यह शरीर इन्द्रियों का विषय नहीं होता। भिन्न-भिन्न आकारों में परिवर्तित होना इस शरीर की विशेषता है। इसमें रक्त, मांस यादि का सर्वथा प्रभाव होता है । सूक्ष्म पदार्थ के ज्ञान के लिये अथवा किसी शंका के समाधान के लिये प्रमत्त संयत [ मुनि ] एक विशिष्ट शरीर का निर्माण करता है । यह शरीर बहुत दूर तक जाता है और शंका के समाधान के साथ पुनः अपने स्थान पर या जाता है। इसे आहारक शरीर कहते हैं । । तेजस शरीर एक प्रकार के विशिष्ट पुद्गल परमाणुओं [तेजोवगंणा] से बनता है। जठराग्नि की शक्ति इसी शरीर की शक्ति है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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