________________
जैनदर्शन में आगम (श्रुत) प्रमाण
२७५
.
लिखा है कि-श्रु तज्ञान के शब्दज और लिंगज ये दो भेद हैं किन्तु इनमें शब्दज की ही प्रमुखता है। परन्तु दोनों ही श्रु त शब्दज होते हैं यह बात दिगम्बर परम्परा को मान्य नहीं है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने अपने-अपने ढंग से श्रु तज्ञान के भेद किये हैं। उन सब में श्रु तज्ञान के अक्षर और अनक्षर रूप से जो दो भेद किये गये हैं, अधिक प्राचीन और सर्वाधिक प्रचलित प्रतीत होते हैं । क्योंकि श्र तज्ञान के इन दो भेदों का उल्लेख किसी न किसी रूप में सभी जैनाचार्यों ने किया है। आवश्यकनियुक्ति और नन्दीसूत्र में भी जो अक्खसन्नी सम्म""आदि चौदह श्रु त के भेद सर्वप्रथम देखने को मिलते हैं, वे सभी किसी प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थ में देखने को नहीं मिलते हैं । यहाँ तक कि प्रथम प्रयत्न के फलस्वरूप माना जाने वाला अंगप्रविष्ट और अंग-बाह्यश्र त भी दूसरे प्रयत्न के फलस्वरूप मुख्य अक्षर और अनक्षरश्रु त में समा जाता है । यद्यपि अक्षरश्रु त आदि चौदह प्रकार के श्रु त का निर्देश आवश्यकनियुक्ति और नन्दीसूत्र के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में नहीं देखा जाता है, फिर भी उन चौदह भेदों के आधारभूत अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक-श्रुत की कल्पना तो प्राचीन ही प्रतीत होती है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के कर्म-साहित्य में समान रूप से वणित श्रुत के बीस प्रकारों में भी अक्षरथु त का निर्देश है।
अतः श्रु तज्ञान के कितने भेद हैं इस विषय में जैनाचार्यों में परस्पर मतभेद होते हए भी कोई मौलिक भेद नहीं है।
थु तज्ञान का प्रामाण्य जैनाचार्यों ने श्र तज्ञान को प्रमाण न मानने वाले चार्वाक, बौद्ध आदि दार्शनिकों का खण्डन किया है। उनका कहना है कि इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ प्रत्यक्ष ज्ञान जैसे अपने और अपने विषय के जानने में संवादी होने के कारण भी प्रमाण रूप माना जाता है । उसी प्रकार स्व और अर्थ के जानने में सम्वादी होने के कारण श्रतज्ञान भी प्रमाण रूप है। तथा जैन दार्शनिकों का यह भी कहना है कि चार्वाकों और बौद्धों के अपने शास्त्र है और उनको पढ़कर उनको जो ज्ञान होता है वह थ तज्ञान से भिन्न ज्ञान नहीं है । उनका यह भी कहना है कि इस शब्दजन्य श्र तज्ञान के अभाव में गूंगे और वाग्मी में कोई विशेषता नहीं रहेगी क्योंकि मूर्ख को पण्डित बताने में या बालक को उतरोत्तर ज्ञानशाली बताने में शब्द ही प्रधान कारण है । जैनाचार्यों का कहना है कि कहीं कहीं विसम्वाद हो जाने के कारण यदि सभी श्र तज्ञानों को अप्रमाण ठहराया जायेगा तो सीप में चांदी का ज्ञान होना, एक चन्द्रमा को दो जान लेना आदि प्रत्यक्षों के अप्रमाण हो जाने से सभी प्रत्यक्ष अप्रमाण हो जायेंगे, यह ठीक है कि प्रत्यक्षाभास के समान श्रुताभास भी मान लिया जाय, किन्तु उनका श्रु तज्ञान को एकदम अप्रमाण ठहराना कदापि उचित नहीं है।
अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि अन्य प्रमाणों के समान श्रु तज्ञान भी एक स्वतन्त्र प्रमाण है। और यदि इसको प्रमाण न माना जायेगा तो लोक व्यवहार चलना भी मुश्किल हो जायगा। क्योंकि व्यवहार में भी एक दूसरे के वचनों पर विश्वास करके ही कार्य किया जाता है।' श्रु तज्ञान का महत्व
श्रु तज्ञान ही एक ऐसा ज्ञान है जो ज्ञानरूप भी है और शब्दरूप भी है। इसे ज्ञाता स्वयं भी जानता है और दूसरों को भी ज्ञान कराता है । वैसे शब्द प्रमाण तो धृ तज्ञान ही है, किन्तु अन्य दर्शनों में माने गये उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, ऐतिह्य, सम्भव और प्रतिभा प्रमार्गों का भी शब्द योजना होने पर श्रु तज्ञान में ही अन्तर्भाव हो जाता है।' श्रु तज्ञान के द्वारा ही पूर्वज, तीर्थंकरों, गणधरों और इनके उतरोत्तर आचार्यों, शिष्य प्रशिष्यों का ज्ञान प्रवाहित होता है । इसको कोई श्रुत, कोई श्रुति और कोई आगम कहते हैं । संदर्भ स्थल: १ (क) पंचविहे णाणे पण्णत्ते तं जहा-आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे केवलणाणे ।
-स्थानांगसूत्र, स्थान ५, उद्देशक ३, सूत्र ४६३ (ख) अनुयोगद्वार सूत्र १ (ग) नन्दीसूत्र १
(घ) भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक २, सूत्र ३१८ २ दुविहे गाणे पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव । पच्चक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-केवलणाणे चेव
नोकेवलणाणे चेव । ......"णोकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओहिणाणे चेव मणपज्जवणाणे चेब, परोक्खेणाणे दुविहेपण्णत्ते, तं जहा-आमिणिबोहियणाणे चेव सुयणाणे चेव । -स्थानांग स्थान २, उद्देशक १, सूत्र १७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org