________________
"जैन साहित्य में आर्थिक ग्राम-संगठन से सम्बद्ध मध्यकालीन ‘महत्तर', 'महत्तम' तथा 'कुटुम्बी'"
-डॉ० मोहनचन्द
'ग्राम संगठन' के सन्दर्भ में 'महत्तर' तथा 'कुटुम्बी' के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझने के लिए आवश्यक है कि 'ग्राम संगठन' के प्रारम्भिक स्वरूप को समझा जाय। ऋग्वेद' में अनेक स्थानों पर 'ग्राम' का उल्लेख आया है जिसका अर्थ 'समूह' अथवा 'समुदाय' है। संगीतशास्त्र में तथा भाषाशास्त्र में 'ग्राम' का 'समुदाय' अर्थ अब भी सुरक्षित है किन्तु वर्तमान में 'ग्राम' शब्द का अर्थ उस भूमि-प्रदेश का परिचायक है जिसमें कुछ लोग बसे हों तथा खेती आदि करते हों। वैदिक काल में 'ग्राम' का स्वरूप कछ भिन्न था । वैदिक आर्य जब भारत में आए तो उन्होंने 'जन' के रूप में स्वयं को संगठित कर लिया था। वैदिक आर्य स्वसमुदाय को 'सजात', 'सनाभि'' आदि कहते थे तथा दूसरे जनों को 'अन्यनाभि" अथवा 'अरण' के नाम से पकारते थे। प्रारम्भ में आर्यों के ये जन अव्यवस्थित एवं घुमक्कड़ रहे थे तथा अपने किसी शक्तिशाली पुरुष के नेतृत्व में इधरउधर जाकर बसने लगे थे। इसके लिए समुदाय' की विशेष आवश्यकता थी। ऋग्वेद में आर्यों के कबीलों की यही सामुदायिक गतिविधि 'ग्राम' के नाम से प्रसिद्ध थी। किसी स्थान पर स्थायी रूप से बसने पर वह स्थान भी 'ग्राम' कहा जाने लगा था। अनेक ग्रामों का संगठित स्वरूप जनपद' कहलाया तथा उस जनपद के शासक को राजा कहा जाने लगा। ग्रामों के घुमक्कड़ स्वरूप का चित्रण उत्तर वैदिक युग में निर्मित शतपथ ब्राह्मण में भी हुआ है। शतपथ ब्राह्मण एक ऐसे 'ग्राम' का उल्लेख करता है जो कहीं भी स्थायी रूप से बसा नहीं था तथा अपने नेता शर्याति के नेतृत्व में चलता फिरता रहता था। इन ग्रामों के मुखिया को 'ग्रामणी' की संज्ञा दी गई है।
१. तलनीय –'पसि ग्रामष्वविता परोहितोऽसि', ऋग्वेद, १.४४. १०पर सायण भाष्य -'ग्रामेषु जननिवासस्थानेषु ।' 'ग्रामे अस्मिन्ननातरम्' ऋग्वेद
१११४१ पर सायण-'प्रस्मदीये न मे वर्तमानं ।' 'य स्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः', ऋग्वेद, २.१२.७ पर सायण०-'यस्य अनुशास ने ग्रामा:'. 'असन्ते व ति ग्रामा जनपदा:' । 'निपुत्वन्तो ग्राम जितो' ऋग्वंद, ५.५४.८ पर साय ण 'ग्राम जितो ग्राम स्य जेतारो नर इव । कथा ग्राम न पच्छसि' ऋग्वेद १०.१४६.१ पर सायण-कयं ग्राम न पृच्छसि, निर्जने , रपये कथं रम से। गाव इव ग्रामं यूयधि:', ऋग्वेद, १०.१४६४ पर सायण. 'गाव इव
यथारण्ये संचरंतो गाव: ग्रामं शीघ्रम भिगच्छन्ति । २. विशेष द्रष्टव्य - सत्य केतु विद्यालंकार, प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था और राजशास्त्र, मसूरी, १९६८, पृ० ३४.३५. ३. संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ , सम्पा० द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी तथा तारणीश झा, इलाहाबाद, १९६७, १०४१६.
Phoreme (ध्वनिग्राम), गोलोक बिहारी थल, ध्वनिविज्ञान, पटना, १९७५, पृ०२६२. विशेष द्रष्ट० - मोहनचन्द, सस्कृत जैन महाकाव्यों में वणित नगरों तथा ग्रामों के भेद (लेख); तुलसीप्रशा, जैन विश्वभारती, लाडनं : खण्ड-२, पंक ७-८, जुलाई-दिसम्बर, १९७६; १० ५१-५२, ६५-६६. तैत्तिरीय ब्राह्मण, २१३.२ तथा अथर्ववेद, ३.३ ५. प्रथर्व०, १३०.१ सत्य केतु विद्याल कार, प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था, पृ० ३४.
वही, प० ३४. १० वही. प० ३५. ११. तल० शयतो हि वा इयं मानवो ग्रामेण चचार । म तदेव प्रतिवेशो निबिविशो तस्य कमारा कोडंत ।' शतपथः ४१.५.२. १२. तुल० ग्राम प्यो गृहान् परेत्य · वैग्यो वै ग्रामणीस्तस्मान मतो भवति', शतपथ०, ५.२ ५६.
८०
पाचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org