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ग्रामों को उपर्युक्त अनवस्थित दशा को स्थिर करने तथा इन ग्रामों के अन्तर्गत आने वाले 'कुटुम्ब' अथवा 'कुलों को व्य वस्थित करने के उद्देश्य से महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि में 'राजतन्त्र' की सहायता ली गई है तथा वास्तुशास्त्रीय व्यवस्थित पद्धति के अनुरूप ग्राम, दुर्ग, जनपद आदि के निवेश को महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार 'ग्राम संगठन' की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि मूलतः सामाजिक संगठन का महत्त्वपूर्ण अंग रही थी जिसमें गोत्र, कुल, वंश, परिवार आदि का विशेष औचित्य था । किन्तु परवर्ती काल में कृषि विकास के कारण ग्रामों द्वारा ही आर्थिक उत्पादन किया जाता था फलतः ग्राम संगठन को राजनैतिक शासन व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला ताल तथा इससे उत्तरोत्तर शताब्दियों में ग्राम संगठन सामन्तवादी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी ही बन गए जो आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था से केन्द्रित थे तथा राजनैतिक शक्ति के प्रभुत्व की मुख्य शक्ति के रूप में उभर कर आए थे। यही कारण है कि प्राणनाथ आदि इतिहासकार यह कहते हैं कि ग्राम का अर्थ गाँव नहीं अपितु राष्ट्र (Estate) है जो अठारह प्रकार के करों का भुगतान करते थे।" पी०बी० काणे ने इस मान्यता का खण्डन किया है तथा ग्राम को कुछ एकड़ भूमि से युक्त निवासार्थक इकाई ही माना है । वस्तुतः प्राणनाथ द्वारा ग्राम के उपर्युक्त स्वरूप का वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से समर्थन नहीं किया जा सकता तथापि यह कहना होगा कि इनकी राष्ट्र के रूप में की गई ग्राम-परिभाषा मध्यकालीन राजनैतिक एवं आर्थिक परिस्थतियों के परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त है तथा सामन्तवादी ढांचे में 'ग्राम' के वास्तविक एवं परिवर्तित स्वरूप को स्पष्ट करती है । राजा हर्ष के लिए 'चतुरुदधिकेदारकुटुम्बी" तथा ग्राम मुखिया महत्तर' को 'जनपदमहत" एवं "राष्ट्र महतर" के रूप में मिली मान्यता ग्राम संगठन के राष्ट्रीय कोवित्य को प्रकट करता है ।
सातवीं शताब्दी ई० से बारहवीं शताब्दी ई० तक के मध्यकालीन ग्राम संगठनों का भारतीय अर्थ-व्यवस्था को आत्मनिर्भर एवं ग्रामोन्मुखी बनाने में विशेष योगदान रहा है। परिवर्तित आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार किसी भी सामन्त राजा की उपादेयता उसके अधीन हुए ग्रामोत्पादन के लाभ से आंकी जाती थी । अब ग्रामों में वस्तुओं का उत्पादन बाजार में बेचने के लिए न होकर अभिजात्यवर्ग की आवश्यकतापूर्ति के लिए किया जाता था। इस व्यवस्था में किसान भूमि से बच्चे होते थे तथा भूमि के स्वामी ने जमींदार
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महाभारत (शान्तिपर्व), १२.८७.२ ८.
Sharma, R.S., Social Changes in Early Medieval India, The First Devraj Chanana Memorial Lecture, University of Delhi Delhi, 1969, p. 13 तथा तुल०
'शूद्रकर्ष कप्रायं कुलशतादरं पंचशतकुलपरं ग्रामं निवेशयेत्' । अर्थशास्त्र, २.१ ग्रामाः गृहशतेनेष्टो निकृष्टः समधिष्ठितः । परस्तत्पञ्चशत्यास्यात् सुसमृद्ध कृषिवल ॥ प्रादिपुराण, १६.१६५.
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Altekar, State & Government in Ancient India, Delhi, 1972, pp. 226-227.
'डां० प्राणनाथ द्वारा जैन ग्रंथ 'प्रज्ञापणोपाङ्ग' के आधार पर 'ग्राम' की परिभाषा करना पी० वी० काणे के मत में भ्रान्त तथा प्रप्रमाणिक है। जैन टीकाकार के 'गामनिवेसेस' इत्यादि - 'प्रसति बुद्धध्यादीन् गुणानिति ग्राम: यदि वा गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादश कराणामिति ग्राम:' नामक उद्धरण काणे महोदय के मत से कोशशास्त्रीय प्रमाण से अधिक और कुछ नहीं । वस्तुत: डॉ० प्राणनाथ द्वारा जिस राजनैतिक एवं प्रार्थिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में 'ग्राम' के संगठनात्मक स्वरूप को उभारा गया है उसके कई तथ्य विचारणीय हैं । प्राणनाथ का मन्तव्य है कि मध्ययुगीन भारत की राजनैतिक व्यवस्था पूरी तरह से सामन्तों की जकड़न में आ चुकी थी। ग्राम संगठन के सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं को पड़ोसी सामन्त राजा सुलझाते थे तथा उसमें ग्रामवासियों का प्रतिनिधित्व नहीं के समान था । भारतवर्ष की यह सामन्त पद्धति ग्रीक आदि देशों की सामन्त पद्धति से बहुत कुछ मिलती थी। जिसमें किसान, मजदूर, भूमिहीन मजदूर, दिहाड़ी वाले मज़दूर एवं दासकृषकों के पास न तो राजनैतिक शक्ति थी और न ही कोई ऐसा संवैधानिक अधिकार था जिससे वे अपने दमन एवं शोषण के प्रति श्रावाज़ उठा सकें। इन सभी तथ्यों के आधार पर डॉ० प्राणनाथ 'ग्राम' को एक ऐसे व्यापक सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हैं जिसमें 'ग्राम संगठन' का श्रौचित्य राज्य के सन्दर्भ में किया जाने लगा था और राज्य के स्वरूप का अवमूल्यन होकर 'ग्राम संगठन' मात्र से केन्द्रित हो चुका था। इसी प्रयोजन से डॉ० प्राणनाथ 'ग्राम' को estate संज्ञा देने में नहीं हिचकिचाते जो वास्तुशास्त्रीय परिभाषा की दृष्टि से प्रयुक्तिसंगत है किन्तु राजनैतिक एवं मार्थिक व्यवस्था के व्यावहारिक सन्दर्भ में उपयुक्त है।"
विशेष द्रष्टव्य- (i) Pran Nath A Study in Economic Condition of Ancient India, p. 26 & ch. I, III, VI, London,
1929.
(ii) Kane, P.V., History of Dharma Sastra, Vol. III, p. 140, f n. 182.
(iii) Nigam, Shyamsunder, Economic Organisation in Ancient India, Delhi, 1975, pp.77-80.
५.
Pran Nath, A Study in Economic Conditions of Ancient India, pp. 39-40. ६. हर्षचरित, सम्पादक पी० वी० काणे, दिल्ली, १६५६, पृ० ३५.
दशकुमारचरित, उच्छवास, ३, पृ०७७.
निशी भाष्य, ४.१७३५ तथा I.4. Vol. V, p. 114.
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