________________ जैन संस्कृति का आलोक है? उस दिशा में कौन जाए, क्यों जाए, क्यों सोचे? योग से तो पैसा मिलना चाहिए। एक और कथ्य है - ऐसा भी हम अपने देश में देख रहे है, वित्त तो योग पर नहीं छाया है, किंतु लोकेषणा इतनी अधिक व्याप्त हो गई है कि जैन योग के प्राचीन आचार्यों के सिद्धान्तों पर चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करने का किसीको अवकाश ही नहीं हैं। ध्यान और योग के प्रणेता अभिनव आविष्कर्ता की ख्याति एवं प्रशस्ति का आकर्षण इतना अधिक मन में घर कर गया है कि योग की अंतः समाधान, आत्मशांति और समाधिमूलक फलवत्ता गौण होती जा रही है। यह भी योग का एक प्रकार से व्यवसायीकरण है। कृपया योग को व्यवसाय न बनाएं यह तो चिन्तामणि रत्न है। इसका उपयोग उसके स्वरूप के अनुकूल ही होना चाहिए। ये कुछ कटुक्तियाँ हैं, पर वस्तुतः स्थिति आज इससे कुछ भिन्न प्रतीत नहीं होती। अंत में मैं यही कहूँगा कि योग एक ऐसा विषय है जिसकी उपयोगिता त्रिकालवर्तिनी है। आज के तनाव, अनैतिकता, अनाचरण, अव्यवस्था और असंतुलनपूर्ण जनजीवन में योगाभ्यास और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। अजगर की तरह निगलने को उद्यत इन समस्याओं से जूझने के लिए योग के यथार्थ स्वरूप का बोध, अभ्यास, तन्मूलक चिन्तन और व्यवहार सर्वथा अपरिहार्य है। कितना अच्छा हो, हमारे धर्मोपदेष्टा इस विषय को सर्वाधिक महत्व देते हुए योग की जीवनगत उपयोगिता को उजागर करें। ... - सरस्वती पुत्र एवं भारतीय विद्या के समुन्नयन में समर्पित प्रो. डॉ. छगनलाल जी 'शास्त्री' निःसन्देह राष्ट्र के प्रबुद्ध मनीषी हैं। काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि एवं निम्बार्कभूषण से विभूषित डॉ. शास्त्री संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, राजस्थानी आदि भाषाओं के आधिकारिक विद्वान् हैं। वैदिक, आर्हत् एवं सौगात आदि विभिन्न दर्शनों के ज्ञाता एवं मर्मज्ञ ! मद्रास विश्वविद्यालय में डिपार्टमेन्ट ऑफ जैनोलॉजी की स्थापना में आपश्री का अनन्य योगदान हैं। कई वर्षों तक इसी विभाग को कुशल प्राध्यापक के रूप में महती सेवाएं दीं। रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ प्राकृत जैनोलॉजी एण्ड अहिंसा, वैशाली में भारतीय तथा वैदेशिक छात्रों को शिक्षण और मार्गदर्शन दिया। अनेक कृतियाँ संपादित, अनूदित एवं व्याख्यात ! “आचार्य हेमचन्द्रः काव्यानुशासनञ्च - समीक्षात्मक मनुशीलनम्" महत्वपूर्ण ग्रंथ इसी वर्ष प्रकाशित ! संप्रतिः लेखन - सम्पादन - अध्ययन - अध्यापन। - सम्पादक जिंदगी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं वस्तुओं का कहीं प्राचुर्य तो कहीं अभाव या सीमित रूप होता है। ये जिन्दगी के साधन हैं। अधिक साधनों वाला बहुत ऊँचा है और थोड़े साधनों वाला नीचा है। अमीर गरीब, छोटा-बड़ा आदि सामाजिक व्यवस्था का या मानवीय विचार वाला व्यापार है और कुछ नहीं है। वस्तु, धन को विशेषण बना दिया आदमी के लिए। आदमी तो वही है, उसी माटी का बना है, वही जीवन जीने की प्रक्रिया है। - सुमन वचनामृत जैन साधना और ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org