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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
योग के क्षेत्र में निःसंदेह उनका एक अभूतपूर्व मौलिक चिंतन है।'
ये योगदृष्टियां अपने आप में एक स्वतंत्र शोध का विषय है।
आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान के चार भेदों का बड़ा मार्मिक विवेचन किया है। पिंडस्थ ध्यान की उन्होंने पार्थिवी आग्रेयी, वायवी, वारुणी तथा तत्वभू नामक पाँच धारणाओं का वर्णन किया है, जहाँ पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आत्मस्वरूप के आधार पर ध्यान करने का बड़ा विलक्षण विश्लेषण
उन्मूलन नहीं होता, केवल उपशम होता है। कार्मिक आवरणों के संपूर्ण क्षय से जो समाधि अवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज है क्योंकि वहाँ कर्म बीज परिपूर्ण रूप में दग्ध/विनष्ट हो जाता है। कर्मों के उपशम से प्राप्त उन्नत दशा फिर अवनत दशा में परिवर्तित हो सकती है, पर कर्मक्षय से प्राप्त उन्नत दशा में ऐसा नहीं होता।
अस्तु, जैन साधना और योग पर बहुत संक्षेप में उपर्युक्त विचार मैंने व्यक्त किये हैं। यह एक बड़ा महत्वपूर्ण विषय है। इस पर वषा स म अध्ययन अनुसंधान में अभिरत हूँ। बहुत कुछ लिखना चाहता था, कितु स्थान की अपनी सीमा है।
यहाँ एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है। जैन योग पर स्वतंत्र रूप से भी कतिपय आचार्यों ने ग्रंथों की रचना की। उनमें आचार्य हरिभद्रसूरि, आचार्य हेमचंद्र, आचार्य शुभचंद्र तथा उपाध्याय यशोविजय आदि मुख्य हैं।
जैन परंपरा में आचार्य हरिभद्र सूरि वे पहले मनीषि हैं जिन्होंने योग को एक स्वतंत्र विषय के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने संस्कृत में योगदृष्टि समुच्चय, योगबिंदु तथा प्राकृत में योगशतक और योगविशिका नामक ग्रंथ लिखे। इन चारों ग्रंथों का मैने हिंदी में अनुवाद - संपादन एवं विश्लेषण किया है। जो “जैनयोग ग्रंथ चतुष्टय" के नाम से मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, व्यावर (राजस्थान) द्वारा प्रकाशित है। हिंदी में इन महान् ग्रंथों का यह पहला अनुवाद है।
आचार्य हरिभद्र ने इन ग्रंथों में अनेक प्रकार से जैनयोग का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण किया है। योग दृष्टि समुच्चय में उन द्वारा निरुपित-आविष्कृत मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कांता, प्रभा एवं परा नामक आठ योगदृष्टियाँ
आचार्य शुभचंद्र ने पिण्डस्थ ध्यान की धारणाओं के अतिरिक्त शिवतत्व, गरुडतत्व और कामतत्व के रूप में ध्यान का जो मार्मिक निरूपण किया है, वह वास्तव में उनकी अनूठी सूझ है, मननीय है।
प्राचीन जैन आचार्यों ने योग पर जितना जो लिखा है, उस पर जितना जैसा अपेक्षित है, अध्ययन, अनुशीलन अनुसंधान नहीं हो सका। यह बड़े खेद का विषय है। यदि जैन विद्वान, जैन तत्त्वानुरागी मनीषी इस दिशा में कार्य करते तो न जाने कितने महत्वपूर्ण योग विषयक उपादेय तत्त्व, तथ्य आविष्कृत होते ।
यह भी एक विषाद का विषय है कि आज अन्यान्य क्षेत्रों की तरह योग का क्षेत्र भी एक अर्थ में व्यावसायिकता लेता जा रहा है। अमेरिका आदि में अनेक योग केंद्र चल रहे हैं। आसनादि का जो प्रशिक्षण दिया जाता है, वह सब अर्थ - पैसे के लिए है। वहाँ यह लगभग विस्मृत जैसा है कि आसन यम-नियम के बिना अधूरे हैं। प्राणायाम का प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के बिना क्या सार्थक्य
१. योगदृष्टि समुच्चय २१.१८६ २. योगशास्त्र ७.१०.२५
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जैन साधना और ध्यान
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