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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार पतञ्जलि ने भी प्रतिपक्ष भावना के सिद्धान्त को मान्य किया है। बौद्ध-साहित्य में अनुपश्यना शब्द का प्रयोग हुआ है जो उनका अभिमत है कि अविद्या आदि क्लेश प्रतिपक्ष भावना से अनुप्रेक्षा के अर्थ को ही अभिव्यक्त करता है। अभिधम्मत्थ उपहत होकर तनु हो जाते है। क्लेश प्रतिप्रसव (प्रतिपक्ष) के संगहो में अनित्यानुपश्यना, दुःखानुपश्यना, अनात्मानुपश्यना, द्वारा हेय है३। अनुप्रेक्षा के प्रयोग क्लेशों को तनु करते हैं। अनिमित्तानुपश्यना आदि का उल्लेख प्राप्त है। विशुद्धिमग्ग में अनुप्रेक्षा संकल्पशक्ति प्रयोग है। अनुप्रेक्षा के प्रयोग से ।
ध्यान के विषयों (कर्म-स्थान) के उल्लेख के समय दस प्रकार संकल्पशक्ति को बढ़ाया जा सकता है। व्यक्ति जैसा संकल्प का अनुपात
की अनुस्मृतियों एवं चार ब्रह्मविहार का वर्णन किया है। उनसे करता है, जिन भावों में आविष्ट होता है तदनुरूप उसका परिणाम
अनुप्रेक्षा की आंशिक तुलना हो सकता है। मरण-स्मृति कर्मस्थान होना लगता है। जं जं भावं आविसइ तंतं भावं परिणमइ।
में शव को देखकर मरण की भावना पर चित्त को लगाया जाता संकल्पशक्ति के द्वारा मानसिक चित्र का निर्माण हो गया तो उस
है जिससे चित्त में जगत् की अनित्यता का भाव उत्पन्न होता है। घटना को घटित होना ही होगा। संकल्य वस्तु के साथ तादात्म्य
कायगतानुस्मृति अशौचभावना के सदृश है। मैत्री, करुणा, मुदिता हो जाने से पानी भी अमृतवत् विषापहारक बन जाता है। आचार्य
एवं उपेक्षा को बौद्ध-दर्शन में ब्रह्मविहार कहा गया है। ये मैत्री सिद्धसेन ने कल्याणमंदिर में इस तथ्य को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त
आदि ही जैन-साहित्य में मैत्री, करुणा आदि भावना के रूप में किया है५। तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि व्यक्ति जिस वस्तु
विख्यात हैं। आधुनिक चिकित्सा के क्षेत्र में भी अनुप्रेक्षा का का अनुचिंतन करता है वह तत् सदृश गुणों को प्राप्त कर लेता
बहुत प्रयोग हो रहा है। मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिए है। परमात्मस्वरूप को ध्यानाविष्ट करने से परमात्मा, गरुड़रूप
भी यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। "माइन्ड स्टोर" नामक को ध्यानाविष्ट करने से गरुड़ एवं कामदेव के स्वरूप को ध्यानाविष्ट
प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक Jack Black ने मानसिक संतुलन एवं करने से कामदेव बन जाता है२६। पातञ्जल योग-दर्शन में भी
मानसिक फिटनेस के प्रोग्राम में इस पद्धति का बहुत प्रयोग यही निर्देश प्राप्त है। हस्तिबल में संयम करने पर हस्ति सदृश
किया है, उनकी पूरी पुस्तक ही इस पद्धति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश बल हो जाता है। गरुड़ एवं वायु आदि पर संयम करने पर ध्याता
डालती है। तत्सदृश बन जाता है।
ध्यान के द्वारा ज्ञात सच्चाइयों की व्यावहारिक परिणति अनुप्रेक्षा ध्यान की पृष्ठभूमि का निर्माण कर देती है। अनप्रेक्षा अनुप्रेक्षा के प्रयोग से सहजता से हो जाती है। अनुप्रेक्षा. का आलम्बन प्राप्त हो जाने पर ध्याता ध्यान में सतत गतिशील संकल्पशक्ति, स्वभाव-परिवर्तन, आदत-परिवर्तन एवं व्यक्तित्व बना रहता है। अनुप्रेक्षा भावना आत्म-सम्मोहन की प्रक्रिया है।
निर्माण का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। चिकित्सा के क्षेत्र में इसका अहम् की भावना करने वाले में अर्हत् होने की प्रक्रिया शुरू हो बहुमूल्य योगद
बहुमूल्य योगदान हो सकता है। अनुप्रेक्षा के माध्यम से आधि, जाती है। ध्येय के साथ तन्मयता होने से ही तद्गुणता प्राप्त होती
व्याधि एवं उपाधि की चिकित्सा हो सकती है। प्रेक्षा-ध्यान के है। इसलिए आचारांग में कहा गया है कि साधक ध्येय के प्रति
शिविरों में विभिन्न उद्देश्यों से अनुप्रेक्षों के प्रयोग करवाये जाते हैं। दृष्टि नियोजित करे, तन्मय बने, ध्येय को प्रमुख बनाये, उसकी
उनका लाभ भी सैकड़ों-सैकड़ों व्यक्तियों ने प्राप्त किया है अतः स्मृति में उपस्थित रहे, उसमें दत्तचित्त रहे।
आज अपेक्षा इसी बात की है कि अनुप्रेक्षा के बहु-आयामी
स्वरूप को हृदयंगम करके स्व-पर कल्याण के कार्यक्रम में उसे बौद्ध एवं पातञ्जल साधना पद्धति में भी भावनाओं का
नियोजित किया जाये। प्रयोग होता है। पातञ्जल योग सूत्र में अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का तो उल्लेख प्राप्त नहीं है, किन्तु मैत्री, करुणा एवं
सन्दर्भ-स्थल मुदिता इनका उल्लेख किया है। उपेक्षा को इन्होंने भावना नहीं. १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः, पा.यो.सू. १/२ माना है, उनका अभिमत है कि पापियों में उपेक्षा करना भावना २. काय-वाङ-मनो-व्यापारो योगः, जै.सि.दीपिका ४/२५ नहीं है अत: उसमें समाधि नहीं होती है।
३. योगविंशिका, श्लो. १
ariwarowaridwardrobadridrioridoranirmiridroM३४HAdmiridirodusaroranbrdusroriandramodridorroramar
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