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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार
हेतु माना गया है । १९
आगम में एक साथ बारह अनुप्रेक्षा का उल्लेख नहीं है किन्तु उत्तरपूर्वी साहित्य में उनका एक साथ वर्णन है । वारस - अणुवेक्खा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, शान्त-सुधारस - भावना आदि ग्रंथों का निर्माण तो मुख्य रूप से इन अनुप्रेक्षाओं के लिए ही हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र आदि में भी इनका पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है। शान्त-सुधारस आदि कुछ ग्रंथों में इन बारह भावनाओं के साथ मैत्री आदि चार भावनाओं को जोड़कर सोलह भावनाओं का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में बारह भावनाओं का उल्लेख बहुलता से प्राप्त है । अनित्य आदि अनुप्रेक्षा के पृथक्पृथक् प्रयोजन का भी वहाँ पर उल्लेख है । आसक्ति - विलय के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा, धर्म-निष्ठा के विकास के लिए अशरण अनुप्रेक्षा, संसार से उद्वेग-प्राप्ति हेतु संसार-भावना एवं स्वजनमोह त्याग के लिए एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है। इसी प्रकार अन्य अनुप्रेक्षाओं का विशिष्ट प्रयोजन है।
उत्तराध्ययन सूत्र में अनुप्रेक्षा के परिणामों का बहुत सुंदर वर्णन उपलब्ध है। अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है, गौतम के इस प्रश्न के समाधान में भगवान महावीर ने अनुप्रेक्षा के लाभ हैं । वहाँ पर अनुप्रेक्षा के छह विशिष्ट परिणामों का उल्लेख
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है -
(१) कर्म के गाढ़ बंधन का शिथिलीकरण ।
(२) दीर्घकालीन कर्मस्थिति का अल्पीकरण ।
(३) तीव्र कर्मविपाक का मंदीकरण ।
(४) प्रदेश - परिमाण का अल्पीकरण । (५) असाता वेदनीय कर्म के उपचय का अभाव। (६) संसार का अल्पीकरण । १३
अनुप्रेक्षा चिन्तनात्मक होने से ज्ञानात्मक है। ध्यानात्मक नहीं है । अनित्य आदि विषयों के चिन्तन में जब चित्त लगा रहता है, तब वह अनुप्रेक्षा और जब चित्त उन विषयों में एकाग्र हो जाता है, तब वह धर्म्यध्यान कहलाता है । १४ ध्यानशतक में स्थिर अध्यवसाय को ध्यान एवं अस्थिर अध्यवसाय को चित्त कहा गया है। और वह चित्त भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिंतनात्मक रूप होता है । १५
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स्वाध्याय के पाँच भेदों में अनुप्रेक्षा भी एक है। सूत्र के अर्थ की विस्मृति न हो इसलिए अर्थ का बार-बार चिन्तन किया जाता है। अर्थ का बार-बार चिन्तन ही अनुप्रेक्षा है । ७ अनुप्रेक्षा में मानसिक परावर्तन होता है, वाचिक नहीं होता । धर्म्य - ध्यान एवं शुक्लध्यान की भी चार-चार अनुप्रेक्षा बताई। गई है।९ स्वाध्यायगत अनुप्रेक्षा, ध्यानगत अनुप्रेक्षा एवं बारह अनुप्रेक्षा में अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु संदर्भ के अनुकूल उनके तात्पर्यार्थ में कथंचित् भिन्नता है ।
प्राचीन ग्रंथों में अनुप्रेक्षा का तत्त्व-चिंतनात्मक रूप उपलब्ध है। यद्यपि धर्म्य एवं शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख है किंतु उनका भी चिंतनात्मक रूप ही उपलब्ध है। प्रेक्षाध्यान के प्रयोगों में अनुप्रेक्षा के चिंतनात्मक स्वरूप के साथ ही उसके ध्येय के साथ तादात्म्य के रूप को भी स्वीकार किया गया है। अनुप्रेक्षा का प्रयोग सुझाव-पद्धति का प्रयोग है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में इसे सजेस्टोलॉजी कहा जा सकता है। स्वभावपरिवर्तन का अनुप्रेक्षा अमोघ उपाय है। अनुप्रेक्षा के द्वारा जटिलतम आदतों को बदला जा सकता है। प्रेक्षा-ध्यान में स्वभाव परिवर्तन
सिद्धान्त के आधार पर अनेक अनुप्रेक्षाओं का निर्माण किया गया है एवं उनके प्रयोगों से वाञ्छित परिणाम भी प्राप्त हुए हैं।
स्वभाव - परिवर्तन के लिए प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग बहुत लाभदायी है । प्रतिपक्ष की अनुप्रेक्षा से स्वभाव, व्यवहार और आचरण को बदला जा सकता है। मोह कर्म के विपाक पर प्रतिपक्ष भावना का निश्चित प्रभाव होता है । दशवैकालिक में इसका स्पष्ट निर्देश प्राप्त है । उपशम की भावना से क्रोध मृदुता से अभिमान, ऋजुता से माया और संतोष से लोभ के भावों को बदला जा सकता है। आचारांगसूत्र में भी ऐसे निर्देश प्राप्त हैं । जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों में निमग्न नहीं होता" ।
अध्यात्म के क्षेत्र में प्रतिपक्ष भावना का सिद्धान्त अनुभव की भूमिका में सम्मत है। जैन- मनोविज्ञान के अनुसार मौलिक मनोवृत्तियाँ चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । यह मोहनीय कर्म की औदयिक अवस्था है। प्रत्येक प्राणी में जैसे मोहनीय कर्म का औदयिक भाव होता है वैसे ही क्षायोपशमिक भाव भी होता है । प्रतिपक्ष की भावना के द्वारा औदयिक भावों को निष्क्रिय पर क्षायोपशमिक भाव को सक्रिय कर दिया जाता है। महर्षि bườ Brimbil 3 3 þóramónóvid
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