________________ ने "ध्यान-शतक" की रचना की। जिनभद्रगणि क्षमणा श्रम जैन ध्यान पद्धति के मर्मज्ञ ज्ञाता थे। उन्होंने स्वयं ध्यान की गहराई में जाकर जो अनुभव का अमृत प्राप्त किया उसे इस ग्रन्थ में उद्धृत किया है। __ आचार्य हरिभद्र ने जैन-योग पद्धति में नूतन परिवर्तन किया। उन्होंने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, योगशतक और षोडशक प्रभृति अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया। इन ग्रन्थों में जैन परम्परा के अनुसार योग साधना का विश्लेषण करके ही संतुष्ट नहीं हुए अपितु पातंजल योग सूत्र में वर्णित योग साधना और उनकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन योग साधना की तुलना की है और उसमें रहे हुए साम्य को बनाने का प्रयास किया है / 20 आचार्य हरिभद्र के योग ग्रन्थों की निम्न विशेषताएँ हैं:१. कौन साधक योग का अधिकारी है? और कौन योग का अनधिकारी है। 2. योग का अधिकार प्राप्त करने के लिए पहले की जो तैयारी अपेक्षित है, उस पर चिन्तन किया है ? 3. योग्यता के अनुसार साधकों का विभिन्न दृष्टि से विभाग किया है और उनके स्वरूप और अनुष्ठान का भी प्रतिपादन किया गया है। 4. योग साधना के भेद-प्रभेदों का और साधन का वर्णन है। योग बिन्दु में योग के अधिकारी अपुनर्बन्धक, सम्यक् दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति ये चार विभाग किये। और योग की भूमिका पर विचार करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्ति संक्षय, ये पांच प्रकार बताए। योगदृष्टिसमुच्चय में ओध दृष्टि ओर योग दृष्टि पर चिन्तन किया है। इस ग्रन्थ में योग के अधिकारियों को तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम भेद में प्रारम्भिक अवस्था से विकास की अंतिम अवस्था तक की भूमिकाओं के कर्म-मल के तारतम्य की दृष्टि से मित्रा, तारा, बला, दीप्ता, स्थिरता, कान्ता, प्रभा और परा में आठ विभाग किये हैं। ये आठ विभाग पातंजली योग सूत्र के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि तथा बौद्ध परम्परा के खेद, उद्वेग आदि अष्ट पृथक्, जनचिन्त दोषपरिहर और अद्वैष, जिज्ञासा आदि अष्ट योग गुणों के प्रकट करने के आधार पर किये गये हैं। योगशतक में योग के निश्चय और व्यवहार में दो भेद किये गये हैं। 20. समाधिरेषु एवान्यैः संपूज्ञोऽभिधीयते / सम्यक्प्रकर्ष रूपेण वृत्यर्थं ज्ञानतरस्तथा / / असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधि गीयते परैः / निरुद्ध शेष वृत्यादि तत्स्वरूपानुणेधक // योगबिन्दु 419-420 योग विशिका में धर्म साधना के लिए की जाने वाली क्रियाओं को योग कहा है और योग की, स्थान, ऊर्जा, अर्थ, आलंबन और अनालंबन ये पांच भूमिकाएँ बतायी हैं। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् जैन योग के इतिहास के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं आचार्य हेमचन्द्र, जिन्होंने योगशास्त्र नामक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का निर्माण किया है। इस ग्रन्थ में पातंजलि योग सूत्र के अष्टांग योग की तरह श्रमण तथा श्रावक जीवन की आचार साधना को जैन आगम साहित्य के प्रकाश में व्यक्त किया है। इसमें आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है / पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी वर्णन किया है और मन की विक्षुप्त, यातायात, श्लिष्ट और सूलीन इन चार भेदों का भी वर्णन किया है जो आचार्य की अपनी मौलिक देन है / आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र का नाम आता है। ज्ञानार्णव उनकी महत्त्वपूर्ण रचना है। सर्ग 29 से 42 तक में प्राणायाम और ध्यान के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है। प्राणायाम आदि से प्राप्त होने वाली लब्धियों पर, परकाय प्रवेश आदि के फल पर चिन्तन करने के पश्चात् प्राणायाम को साध्यसिद्धि के लिए अनावश्यक और अनर्थकारी बताया है / उसके पश्चात् उपाध्याय यशोविजयजी का नाम आता है वे सत्योपासक थे। उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार बत्तीसी, पातंजल योगे सूत्र वृत्ति, योगविशिका टीका, योग दृष्टि नीखज्झाय आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। अध्यात्मसार ग्रन्थ के योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रकरण में गीता और पातंजलि योग सूत्र का उपयोग करके भी जैन-परम्परा में विश्रुत ध्यान के विविध भेदों का समन्वयात्मक वर्णन किया है / अध्यात्मोपनिषद् में शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग के संबंध में चिन्तन करते हुए योग वाशिष्ठ और तैतरीय उपनिषदों के महत्त्वपूर्ण उद्धरण देकर जैनदर्शन के साथ तुलना की है। योगावतार बत्तीसी में पातंजल योगसूत्र में जो योग साधना का वर्णन है उसका जैन दृष्टि से विवेचन किया है और हरिभद्र के योग बिशिका और षोडशक पर महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिख कर उसके रहस्यों को उद्घाटित किये हैं, जैन दर्शन की दृष्टि से पातंजलि योगसूत्र पर भी एक लघु वृत्ति लिखी है। इस तरह यशोविजयजी के ग्रन्थों में मध्यस्थ भावना गुण-ग्राहकता व समन्वयक दृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। सारांश यह है कि जैन परम्परा का योग साहित्य अत्यधिक विस्तृत है / मूर्धन्य मनीषियों ने उस पर जम कर लिखा है / आज पुनः योग पर आधुनिक दृष्टि से चिन्तन ही नहीं किन्तु जीवन में अपनाने की आवश्यकता है। यहां बहुत ही संक्षेप में मैंने अपने विचार व्यक्त किये हैं / अवकाश के क्षणों में इस पर विस्तार से लिखने का विचार है। 136 राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org