Book Title: Jain Yoga Ek Chintan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 1
________________ जैन योग : एक चिन्तन देवेन्द्र मुनि शास्त्री भारतीय संस्कृति में योग का अत्यधिक महत्व रहा है । अतीत काल से ही भारत के मर्धन्य मनीषीगण योग पर चिन्तन, मनन और विश्लेषण करते रहे हैं, क्योंकि योग से मानव जीवन पूर्ण विकसित होता है। मानव जीवन में शरीर और आत्मा इन दोनों की प्रधानता है। शरीर स्थूल है और आत्मा सूक्ष्म है। पौष्टिक और पथ्यकारी पदार्थों के सेवन से तथा उचित व्यायाम आदि से शरीर पुष्ट और विकसित होता है किन्तु आत्मा का विकास योग से होता है। योग से काम, क्रोध, मद, मोह आदि विकृतियां नष्ट होती हैं । आत्मा की जो अनन्त शक्तियां आवृत्त हैं वे योग से अनावृत्त होती हैं और आत्मा की ज्योति जगमगाने लगती है। आत्म विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। उसका सही अर्थ क्या है, उसकी क्या परम्परा है, उसके संबंध में चिन्तक क्या चिन्तन करते हैं और उनका किस प्रकार का योगदान रहा है आदि पर यहां पर विचार किया जा रहा है। नष्ट होता है और मोक्ष के साथ संयोग होता है उसे योग कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने भी योग की वही परिभाषा की है। बौद्ध चिन्तकों ने योग का अर्थ समाधि किया है । योग के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो रूप हैं । साधना में चित्त का एकाग्र होना या स्थिर चित्त होना यह योग का बाह्य रूप है। अहंभाव, ममत्वभाव आदि मनोविकारों का न होना योग का आभ्यन्तर रूप है । कोई प्रयत्न से चित्त को एकान भी कर ले पर अहंभाव और ममभाव प्रभृति मनोविकारों का परित्याग नहीं करता है तो उसे योग की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। वह केवल व्यावहारिक योग साधना है किन्तु पारमार्थिक या भावयोग साधना नहीं है। अहंकार और ममकार से रहित समत्व भाव की साधना को ही गीतकार ने सच्चा योग कहा है।' वैदिक परम्परा का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य रूप से हुआ है । ऋग्वेद में योग शब्द का व्यवहार अनेक स्थलों पर हआ है। किन्तु वहां पर योग का अर्थ ध्यान और समाधि नहीं है पर योग का अर्थ जोड़ना, मिलाना और संयोग करना है। उपनिषदों में भी जो उपनिषद् ४. (क) मोक्खेव जीयणाओं जोगो-योगविशिका गा. १ (ख) आध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्ति संक्षयः मोक्षेण योजनाद्योग एवं श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। --योगबिन्दु ३१ ५. मोक्षण योजनादेव योगो ह्यत्र निरुच्यते। -द्वात्रिशिका ६. संयुक्त निकाय ५-१० विभंग ३१७-१८ ७. “योगस्य कुरुकर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।। सिद्धायसिद्धयोः समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।-गीता २१४८ ८. ऋग्वेद-१-५-३ : १-१८-७ : १-३४-८ : २-८-१ : ९-५८-३ : १०-१६६-५ योग शब्द "युज्" धातु और "घा" प्रत्यय मिलने से बनता है। "युज्" धातु दो हैं जिनमें से एक का अर्थ है, संयोजित करना, जोड़ना और दूसरी का अर्थ है मन की स्थिरता,स माधि । प्रश्न यह है कि भारतीय योग दर्शन में इन दोनों अर्थों में से किसे अपनाया है ? उत्तर में निवेदन है कि कितने ही विज्ञों ने "योग" का जोड़ने के अर्थ में प्रयोग किया है तो कितने ही विज्ञों ने समाधि के अर्थ में । आचार्य पातंजलि ने “चित्तवृत्ति के निरोध को योग" कहा है। आचार्य हरिभद्र ने जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है कर्म-मल १. युज्यति योगे-गण ७, हेमचन्द्र धातुपाठ २. युजित समाधौ-गण ४, हेमचन्द्र धातुपाठ ३. योगश्चित्तवृत्ति निरोधः-पातंजल योग सूत्र पा. १ सं २ १३४ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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