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जैन योग : उद्गम, विकास, विश्लेषण, तुलना | ३५३
नियम
यमों के पश्चात् नियम आते हैं। नियम साधक के जीवन में उत्तरोत्तर परिस्कार लाने वाले साधन हैं। समवायांग सूत्र के बत्तीसवें समवाय में योग-संग्रह के नाम से बत्तीस नियमों का उल्लेख है, जो साधक की व्रत-सम्पदा की वृद्धि करने वाले हैं। आचरित अशुभ कर्मों की आलोचना, कष्ट में धर्म-दृढ़ता, स्वावलम्बी, तप, यश की अस्पृहा, अलोभ, तितिक्षा, सरलता, पवित्रता, सम्यक् दृष्टि, विनय, धैर्य, संवेग, माया-शून्यता आदि का उनमें समावेश है।
पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित नियम तथा समवायांग के योग-संग्रह परस्पर तुलनीय हैं। सब में तो नहीं पर, अनेक बातों में इनमें सामंजस्य है। योग-संग्रह में एक ही बात को विस्तार से अनेक शब्दों में कहा गया है । इसका कारण यह है ---जैन आगमों में दो प्रकार के अध्येता बताये गये हैं-संक्षेप-रुचि और विस्तार-रुचि । संक्षेप-रुचि अध्येता बहुत थोड़े में बहुत कुछ समझ लेना चाहते हैं और विस्तार-रुचि अध्येता प्रत्येक बात को विस्तार के साथ सुनना-समझना - चाहते है। योग-संग्रह के बत्तीस भेद इसी विस्तार-रुचि-सापेक्ष निरूपण-शैली के अन्तर्गत आते हैं।
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आसन
प्राचीन जैन परम्परा में आसन की जगह 'स्थान' का प्रयोग हुआ है। ओघ नियुक्ति-भाष्य (१५२) में स्थान के तीन प्रकार बतलाये गये हैं-ऊर्ध्व-स्थान, निषीदन-स्थान तथा शयन-स्थान ।
स्थान का अर्थ गति की निवृत्ति अर्थात् स्थिर रहना है। आसन का शाब्दिक अर्थ है बैठना । पर, वे (आसन) खड़े, बैठे, सोते-तीनों अवस्थाओं में किये जाते हैं । कुछ आसन खड़े होकर करने के हैं, कुछ बैठे हुए और कुछ सोये हुए करने के । इस दृष्टि से आसन शब्द की अपेक्षा स्थान शब्द अधिक अर्थ-सूचक है ।
ऊर्ध्व-स्थान-खड़े होकर किये जाने वाले स्थान-आसन ऊर्ध्व-स्थान कहलाते हैं। उनके साधारण, सविचार, सन्निरुद्ध, व्युत्सर्ग, समपाद, एकपाद तथा गृद्धोडीन-ये सात भेद हैं ।
निषीदन-स्थान-बैठकर किये जाने वाले स्थानों-आसनों को निषीदन-स्थान कहा जाता है। उसके अनेक प्रकार हैं-निषद्या, वीरासन, पद्मासन, उत्कटिकासन, गोदोहिका, मकरमुख, कुक्कुटासन आदि ।
आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में चतुर्थ प्रकाश के अन्तर्गत पर्यकासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, मद्रासन, दण्डासन, उत्कटिकासन या गोदोहासन व कायोत्सर्गासन का उल्लेख किया है।
आसन के सम्बन्ध में हेमचन्द्र ने एक विशेष बात कही है-जिस-जिस आसन के प्रयोग से साधक का मन स्थिर बने, उसी आसन का ध्यान के साधन के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए।
हेमचन्द्र के अनुसार अमुक आसनों का ही प्रयोग किया जाय, अमुक का नहीं, ऐसा कोई निबन्धन नहीं है।
पातञ्जल योग के अन्तर्गत तत्सम्बद्ध साहित्य जैसे शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता, हठयोगप्रदीपिका आदि ग्रन्थों में आसन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुम्भक, रेचक, पूरक आदि बाह्य योगांगों का अत्यन्त विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। काय-क्लेश
जैन-परम्परा में निर्जरा के बारह भेदों११ में पांचवां काय-क्लेश है। काय-क्लेश के अन्तर्गत अनेक दैहिक स्थितियाँ भी आती हैं तथा शीत, ताप आदि को समभाव से सहना भी इसमें सम्मिलित है। इस उपक्रम का काय-क्लेश नाम सम्भवतः इसलिए दिया गया है कि दैहिक दृष्टि से जन-साधारण के लिए यह क्लेश कारक है। पर, आत्म-रत साधक, जो देह को अपना नहीं मानता, जो क्षण-क्षण आत्माभिरुचि में संलग्न रहता है, ऐसा करने में कष्ट का अनुभव नहीं करता । औपपातिक सूत्र के बाह्य तपःप्रकरण में तथा दशाश्र तस्कन्ध सूत्र की सप्तम दशा में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। प्राणायाम
जैन आगमों में प्राणायाम के सम्बन्ध में विशेष वर्णन नहीं मिलता । जैन मनीषी, शास्त्रकार इस विषय में उदासीन से प्रतीत होते हैं। ऐसा अनुमान है, आसन और प्राणायाम को उन्होंने योग का बाह्यांग मात्र माना, अन्तरंग
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