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३५२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष अग्रणी या मुख्य है। योग उस (मोक्ष) का कारण है अर्थात् योग-साधना द्वारा मोक्ष लभ्य है । सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र्य रूप रत्नत्रय ही योग है। ये तीनों जिनसे सघते हैं, वे योग के अंग हैं। उनका आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योग शास्त्र के बारह प्रकाशों में वर्णन किया है। योग के अंग
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महर्षि पतञ्जलि ने योग के जो आठ अंग माने हैं, उनके समकक्ष जैन परम्परा के निम्नांकित तत्त्व रखे जा
सकते हैं
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१. यम.. २. नियम... ३. आसन... ४. प्राणायाम ५. प्रत्याहार'. ६. धारणा ७. ध्यान ८. समाधि...
महाव्रत योग-संग्रह स्थान, काय-क्लेश भाव प्राणायाम प्रतिसंलीनता धारणा ध्यान समाधि
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महाव्रतों के वही पांच नाम हैं, जो यमों के हैं । परिपालन की दृष्टि से महाव्रत के दो रूप होते हैं--महाव्रत, अणुव्रत । अहिंसा आदि का निरपवाद रूप में सम्पूर्ण परिपालन महाव्रत हैं, जिनका अनुसरण श्रमणों के लिए अनिवार्य है । जब उन्हीं का पालन कुछ सीमाओं या अपवादों के साथ किया जाता है, तो वे अणु अपेक्षाकृत छोटे व्रत कहे जाते हैं । स्थानांग (५/१) समवायांग (२५) आवश्यक, आवश्यक नियुक्ति आदि में इस सम्बन्ध में विवेचन प्राप्त है ।।
__ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रकाश में व्रतों का विस्तृत वर्णन किया है । गृहस्थों द्वारा आत्म-विकास हेतु परिपालनीय अणुव्रतों का वहाँ बड़ा मार्मिक विश्लेषण हुआ है। जैसाकि वर्णन प्राप्त है, आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरेश्वर कुमारपाल के लिए योग-शास्त्र की रचना की थी। कुमारपाल साधना-परायण जीवन के लिए अति उत्सुक था। राज्य-व्यवस्था देखते हुए भी वह अपने को आत्म-साधना में लगाये रख सके, उसकी यह भावना थी। अतएव गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी आत्म-विकास की ओर अग्रसर हुआ जा सके, इस अभिप्रेत से हेमचन्द्र ने गृहस्थ जीवन को विशेषतः दृष्टि में रखा ।
आचार्य हेमचन्द्र ऐसा मानते थे कि गृहस्थ में भी मनुष्य उच्च साधना कर सकता है, ध्यान-सिद्धि प्राप्त कर सकता है। उनके समक्ष उत्तराध्ययन का वह आदर्श था जहाँ “संति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजमुत्तरा" इन शब्दों में त्यागनिष्ठ, संयमोन्मुख गृहस्थों को किन्हीं २ साधुओं से भी उत्कृष्ट बताया है। आचार्य शुभचन्द्र ऐसा नहीं मानते थे। उनका कहना था कि बुद्धिमान और त्याग-सम्पन्न होने पर भी साधक, गृहस्थाश्रम, जो महा दुःखों से भरा है, अत्यन्त निन्दित है, उसमें रहकर प्रमाद पर विजय नहीं पा सकता, चञ्चल मन को वश में नहीं कर सकता । अतः आत्म-शान्ति के लिए महापुरुष गार्हस्थ्य का त्याग ही करते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने तो और भी कड़ाई से कहा कि किसी देश-विशेष
और समय विशेष में आकाश-कूसूम और गर्दम-शग का अस्तित्व मिल भी सकता है परन्तु किसी काल और किसी भी देश में गृहस्थाश्रम में रहते हुए ध्यान-सिद्धि अधिगत करना शक्य नहीं है।
आचार्य शुभचन्द्र ने जो यह कहा है, उसके पीछे उनका जो तात्त्विक मन्तव्य है, वह समीक्षात्मक दृष्टि से विवेच्य है।
सापवाद और निरपवाद व्रत-परम्परा तथा पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित यमों के तरतमात्मक रूप पर विशेषतः ऊहापोह किया जाना अपेक्षित है। पतञ्जलि यमों के सार्वभौम रूप को महाव्रत' शब्द से अभिहित करते हैं, जो विशेषतः जैन परम्परा से तुलनीय है। योगसूत्र के व्यास-भाष्य में इसका तल-स्पर्शी विवेचन हुआ है।
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