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________________ जैन पुराण-कथा का लाक्षणिक स्वरूप अनगिनती कुल-कन्याओं और लोक की श्रेष्ठ सुन्दरियों के हृदय जीते थे। यही हाल कृष्ण के पिता वसुदेव का भी था। उनके एक-एक नयन-विक्षेप पर सारे जनपद का रमणीत्व पागल और मूञ्छित हो जाता था। ऐसी निराली थी इन हरि-वंशियों की वंशजात मोहिनी। इन शलाका पुरुषों के दिग्विजय, देशाटन, समुद्र-यात्रा, साहसिक वाणिज्य व्यवसाय और अन्ततः ब्रह्म-साधना की बड़ी ही सार्थक और लाक्षणिक कथाओं से जैन पुराण ओत-प्रोत हैं। वस्तु और घटना मात्र को देखनेवाली स्थूल ऐतिहासिक दृष्टि को इन कथाओं में शायद ही कुछ मिल सके। इनके मर्म को समझने के लिये पंडित जवाहरलाल जैसा मानव इतिहास का पारगामी कवि द्रष्टा चाहिये। पंडित जी ने अपनी 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में कहा है कि: 'पुराण, दंतकथा और कल्प-कथा को वास्तविक घटना के रूप में न देखकर यदि हम उन्हें गहरे सत्यों के वाहक रूपकों के रूप में देखें तो इनमें अनादिकालीन मानव सृष्टि का अनन्त ऐश्वर्य-कोष हमें प्राप्त हो सकेगा।" जैन वाङ्मय में ऐसे रस, शक्ति, तप और प्रकाश के संश्लिष्ट रूपकों की अपार सम्पत्ति पड़ी है। जिज्ञासुत्रों और सर्जकों को आमंत्रण है कि वे उन चिंतामणियों की ग्राभा से अपनी दृष्टि को पारस बनायें। KAJAL Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210814
Book TitleJain Puran katha ka Lakshanik Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherZ_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf
Publication Year1956
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Mithology
File Size464 KB
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