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४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ धर्म, दर्शन और न्याय
उक्त श्र तमें तीर्थंकर महावीरने धर्म, दर्शन और न्याय इन तीनोंमें भेद करते हुए बताया कि मुख्यतया आचारका नाम धर्म है। धर्मका जिनविचारों द्वारा समर्थन किया जाए वे विचार दर्शन है। और धर्मके सम्पोषणके लिए प्रस्तुत विचारोंको युक्ति-प्रत्युक्ति, खण्डन-मण्डन, प्रश्न-उत्तर एवं शंका-समाधान पूर्वक दृढ़ करना न्याय है। उसी को प्रमाणशास्त्र भी कहते है। इन्हें एक उदाहरण द्वारा यों समझें । अहिंसाका पालन करो, किसी जीवकी हिंसा न करो, सत्य बोलो, असत्य मत बोलो आदि विधि और प्रतिषेध रूप आचारका नाम धर्म है । जब इसमें "क्यों"का सवाल उठता है तो उसके उत्तरमें कहा जाता है कि अहिंसाका पालन करना जीवोंका कर्तव्य है और इससे सुख मिलता है। किन्तु जीवोंकी हिंसा करना अकर्तव्य है और उससे दुःख मिलता है। इसी तरह सत्य बोलना कर्तव्य है, और उससे न्यायकी प्रतिष्ठा होती है। किन्तु असत्य बोलना अकर्तव्य है और उससे अन्यायको बल मिलता है। इस प्रकारके विचार दर्शन कहे जाते हैं । और जब इन विचारोंको दृढ़ करने के लिए यों कहा जाता है कि दया करना जीवका स्वभाव है, यदि उसे स्वभाव न माना जाए तो कोई भी जीव जीवित नहीं रह सकता। सब सबके भक्षक या घातक हो जायेंगे । परिवारमें, देशमें और विश्वके राष्ट्रोंमें अनवरत हिंसा रहनेपर शान्ति और सुख कभी उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। इसी तरह सत्य बोलना मनुष्यका स्वभाव न हो तो परस्परमें अविश्वास छा जायेगा और लेन-देन आदिके सारे लोकव्यवहार लुप्त हो जायेंगे। इस तरह धर्मके समर्थनमें प्रस्तुत विचाररूप दर्शनको दृढ़ करना न्याय है । तात्पर्य यह कि धर्म जहाँ सदाचारके विधान और असदाचारके निषेधरूप है वहाँ दर्शन उनमें कर्तव्य-अकर्तव्य और सुखदुःखका विवेक जागृत करता है । तथा न्याय दर्शनके रूपमें प्रस्तुत विचारोंको हेतुपूर्वक मस्तिष्कमें बिठा देता है। यही कारण है कि विश्वमें इन तीनोंपर पृथक-पृथक शास्त्रोंकी रचना हुई है। भारतमें भी जैन, बौद्ध और वैदिक सभीने धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्रका प्रतिपादन किया है । तथा उन्हें महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जैनन्यायका उदय और विकास
जैनश्र तके बारहवें अंग दृष्टिवादमें तीन सौ तिरेसठ मतोंकी विवेचना की गई है। जैनदर्शन और जैनन्यायके बोज भी इसमें प्रचुर मात्रामें मिलते हैं । आचार्य भतबलि और पुष्पदंत द्वारा निबद्ध षट्खण्डागममें "सियापज्जत्ता", "सिया अपज्जत्ता", "मणुस अपज्जता दव्वपमाणेण केवडिया", "असंखेज्जा' जैसे "सिया" ( स्यात् ) शब्द और प्रश्नोत्तर शैलीको लिए हुए वाक्य उपलब्ध हैं। कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि आर्ष ग्रन्थोंमें उनके कुछ और अधिक बीज दिये हैं। "सिय अत्थि पत्थि उहयं" आदि उनके वाक्य उदाहृत किये जा सकते हैं। श्वेताम्बर आगमोंमें भी जैनदर्शन और जैन न्यायके बीज बहलतया पाये जाते हैं। उनमें अनेक जगह से केणछैणं भंते एवमुच्चई जीवाणं, भंते, किं सासया असासया ? गायमा! जोवा सिय सासया सिय असासया? गोयमा दविठ्ठयाए सासया भावयाए असासया।' जैसे तर्क गर्भित प्रश्नोत्तर प्राप्त होते हैं। ध्यातव्य है कि 'सिया' या 'सिय' प्राकृत शब्द हैं, जो संस्कृतके 'स्यात्' शब्दके पर्यायवाचो हैं । और 'कथंचित्' अर्थके बोधक है । इससे प्रकट है कि स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय आर्षग्रन्थोंमें भी प्राप्त है। जैन मनीषी यशोविजयने लिखा है कि 'स्याद्वादार्थो दृष्टिवादार्णवोत्थः' अर्थात् स्याद्वाद ( जैनदर्शन और न्याय ) दृष्टिवाद रूप अर्णवसे उत्पन्न हुए हैं। यथार्थतः स्याद्वाद दर्शन और स्याद्वाद न्याय ही जैनदर्शन और जैन न्याय है। आचार्य समन्तभद्र ने सभी तीर्थंकरोंको
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