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५ / जैन न्यायविद्याका विकास : ३
चर्चा की गई है। आज वे ऐतिहासिक महापुरुषके रूपमें विश्रुत एवं सर्वमान्य हैं । सन् १९७४-७५में समग्र भारत और विश्वके अनेक देशोंमें उनकी पावन २५००वीं निर्वाण जयन्ती पूरे एक वर्ष तक मनाई गयी थी, जिसके समारोह भारतके सभी राज्योंमें आयोजित हए थे। जिनमें पूरे राष्ट्रने उन्हें श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित की थीं।
अंतमें तीर्थंकर महावीरने बुद्धकी निर्वाणभूमि कुशीनगरके पास स्थित पावासे मोक्ष प्राप्त किया। तीर्थंकर-देशना
इन चौबीस तीर्थंकरोंने अपने-अपने समयमें धर्ममार्गसे च्युत जनसमदायको सम्बोधित किया, और उसे धर्ममार्गमें लगाया। इसीसे इन्हें धर्ममार्ग-मोक्षमार्गका नेता तीर्थ प्रवर्तक, तीर्थंकर कहा गया है। जैन सिद्धान्तके अनुसार जनकल्याणकी भावना भानेसे बद्ध "तीर्थंकर" नामकी एक पुण्य (प्रशस्त) प्रकृतिकर्म है, उसके उदयसे तीर्थकर होते हैं और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। नौवीं शताब्दीके आचार्य विद्यानंदने 'आप्तपरीक्षा' कारिका सोलहमें स्पष्ट कहा है कि "विना तीर्थकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना" अर्थात बिना तीर्थकर पुण्यनामकर्मके तत्वोपदेश सम्भव नहीं है।
इन तीर्थंकरोंका वह उपदेश जिनशासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिनप्रवचन आदि नामोंसे व्यवहृत किया गया है। उनके इस उपदेशको उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयबार भिन्न-भिन्न प्रकरणोंमें निबद्ध करते हैं। अतएव उसे प्रबन्ध एवं ग्रन्थ भी कहते हैं। उनके उपदेशको निबद्ध करने वाले इन प्रमुख शिष्योंको जैनवाङ्मयमें "गणधर" कहा गया है। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धिवाले एवं विशिष्ट क्षयोपशमके धारक होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है।
उत्तरकालमें अल्पमेधाके धारक आचार्य उनके इस श्रतका आश्रय लेकर अपने विभिन्न-विषयक ग्रन्थोंकी रचना करते हैं। और उनके इसी जिनोपदेशको जन-जन तक पहुँचानेका प्रशस्त प्रयास करते हैं। तथा क्षेत्रीय भाषाओंमें भी उसे ग्रथित करते हैं।
उपलब्ध-श्रुत
ऋषभदेवका श्रुत अजित तक, अजितका श्रुत शम्भव तक और शम्भवका अभिनन्दन तक, इस तरह पूर्व तीर्थंकरका श्रुत उत्तरवर्तो अगले तीर्थकर तक रहा। तेईसवें तीर्थकर पार्श्वका द्वादशाङ्ग श्रुत तब तक रहा, जब तक महावीर तीर्थकर (धर्मोपदेष्टा) नहीं हुए। आज जो आंशिक द्वादशाङ्गश्रत उपलब्ध है वह अंतिम तीर्थंकर महावीरसे सम्बद्ध है। अन्य सभी तीर्थंकरोंका श्रुत लेखबद्ध न होने तथा स्मृतिधारकोंके न रहनेसे नष्ट हो चुका है। वर्धमान महावीरका द्वादशाङ्गश्रुत भी पूरा उपलब्ध नहीं है । आरम्भमें वह आचार्यशिष्य-परम्परामें स्मृतिके आधारपर विद्यमान रहा। उत्तरकालमें स्मृतिधारकोंकी स्मृति मंद पड़ जानेपर उसे निबद्ध किया गया। दिगम्बर परम्पराके अनुसार वर्तमानमें जो श्रुत उपलब्ध है वह बारहवें अंग दृष्टिवादका कुछ अंश है, जो धरसेनाचार्यको आचार्य परम्परासे प्राप्त था और जिसे उनके शिष्य भूतबलि और पुष्पदंतने उनसे प्राप्तकर लेखबद्ध किया। शेष ग्यारह अंग और बारहवें अंगका बहुभाग नष्ट हो चुका है। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार देवधि गणीके नायकत्वमें हुई तीसरी बलभी वाचनामें सङ्कलित ग्यारह अंग मौजूद हैं, जिन्हें दिगम्बर परम्परामें मान्य नहीं किया गया । श्वेताम्बर परम्परा दृष्टिवादका विच्छेद स्वीकार करती है। आज आवश्यक है कि दोनों परम्पराओंके अवशेष श्रुतका अध्ययन किया जाये और महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जाँए ।
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