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________________ १२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अनंतवीर्य प्रथमकी सिद्धिविनिश्चय टीका व प्रमाणसंग्रहभाष्य, वादिराजके न्याय-विनिश्चयविवरण एवं प्रमाणनिर्णय, वादीभसिंहकी स्याद्वादसिद्धि और माणिक्यनंदिका परीक्षामुख अकलंकके वाङ्मयसे पूर्णतया प्रभावित एवं उसके आभारी तथा उल्लेखनीय तार्किक रचनायें हैं, जिन्हें मध्यकालकी महत्त्वपूर्ण देन कहा जा सकता है। ३. अन्त्यकाल अथवा प्रभाचन्द्रकाल यह काल जैन न्यायके विकासका अंतिम काल है। इस कालमें मौलिक ग्रन्थों के निर्माणकी क्षमता कम हो गई और व्याख्या-ग्रन्थोंका निर्माण मुख्य हो गया। यह काल तार्किक ग्रन्थोंके सफल और प्रभावशाली व्याख्याकार जैन तार्किक प्रभाचन्द्रसे आरम्भ होता है । उन्होंने इस कालमें अपने पूर्वज जैन दार्शनिकों एवं ताकिकोंका अनुगमन करते हुए जैन न्यायके दो ग्रन्थों पर जो विशालकाय व्याख्याग्रन्थ लिखे हैं, वे अतुलनीय हैं । उत्तर कालमें उन जैसे व्याख्याग्रन्थ नहीं लिखे गये । अतएव इस कालको प्रभाचन्द्र काल कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी। प्रभाचन्द्रने अकलंकदेवके लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपर नाम न्यायकुमुदचन्द्र व्याख्या ग्रन्थ लिखा है। न्यायकुमुदचन्द्र वस्तुतः न्यायरूपी कुमुदोंको विकसित करनेवाला चन्द्र है। इसमें प्रभाचन्द्रने अकलंक के लघीयस्त्रयकी कारिकाओं और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति तथा उनके दुरुह पदवाक्यादिकोंकी विशद् एवं विस्तृत व्याख्या तो को ही है, किन्तु प्रसंगोपात्त विविध तार्किक चर्चाओं द्वारा अनेक अनुद्घाटित तथ्यों एवं विषयों पर भी नया प्रकाश डाला है। इसी तरह उन्होंने अकलंकके वाङमय मंथनसे प्रसूत माणिक्यन दिके आद्य जैन न्यायसूत्र परीक्षामुख पर जिसे लघु अनंतवीर्यने 'न्यायविद्यामत' कहा है, परीक्षामुखालकार अपरनाम प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी प्रमेयबहुला एवं तर्कगर्भा व्याख्या रची है। इस व्याख्यामें भी प्रभाचन्द्रने अपनी तर्कपूर्ण प्रतिभाका पूरा उपयोग किया है। परीक्षामुखके प्रत्येक सूत्रका विस्तृत एवं विशद व्याख्यान किया है। इसके साथ ही अनेक शंकाओंका सयक्तिक समाधान किया है । मनीषियोंको यह व्याख्याग्रन्थ इतना प्रिय है कि वे जैनदर्शन और जैनन्याय सम्बन्धी प्रश्नोंके समाधानके लिए इसे बड़ी रुचिके साथ पढ़ते हैं और उसे प्रमाण मानते हैं। वस्तुतः प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्याग्रन्थ मल जैसे ही हैं, जो उनकी अमोघतर्कणा और उनके उज्ज्वल यशको प्रसृत करते हैं। प्रभाचन्द्र के कुछ ही काल बाद अभयदेवने सिद्धसेन प्रथमके सन्मतिसूत्र पर विस्तृत सन्मतितर्कटीका लिखी है । यह टोका अनेकांत और स्याद्वाद पर विशेष प्रकाश डालती है । देवसूरिका स्याद्वादरत्नाकर अपरनाम प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार टीका भी उल्लेखनीय है । ये दोनों व्याख्याएँ प्रभाचन्द्रकी उपर्यक्त व्याख्याओंसे प्रभावित एवं उनकी आभारी हैं । प्रभाचन्द्रकी तर्क पद्धति और शैली इन दोनोंमें परिलक्षित है। इन व्याख्याओके सिवाय इस कालम लघु अनंतवीयंने परीक्षामुखपर मध्यम परिमाणकी परीक्षामखवृत्ति अपरनाम प्रमेयरत्नमालाकी रचना की है । यह वृत्ति मलसूत्रों के अर्थको तो व्यक्त करती ही है, सष्टिकर्ता जैसे वादग्रस्त विषयों पर भी अच्छा एवं विशद प्रकाश डालती है। लघीयस्त्रय पर लिखी अभयचन्द्रकी तात्पर्यवृत्ति, हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसा, मल्लिषेणकी स्याद्वादमंजरी, पण्डित आशाधरका प्रमेयरत्नाकर, भावसेनका विश्वतत्त्वप्रकाश, अजितसेनकी न्यायमणिदीपिका, अभिनवधर्मभषणयतिकी न्यायदीपिका, नरेन्द्रसेनकी प्रमाणप्रमेयकलिका, विमलदासको सप्तभङ्गीतरङ्गणी, चारुकीर्ति भट्टारककी अर्थप्रकाशिका तथा प्रमेयरत्नालंकार, यशोविजयके अष्टसहस्रीविवरण, जैन तर्कभाषा और ज्ञान बिन्दु इसकालकी उल्लेखनीय तार्किक रचनाएँ है । अंतिम तीन तार्किकोंने अपनी रचनाओंमें नव्यन्यायशैलीको भी अपनाया है, जो बारहवीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210800
Book TitleJain Nyaya vidya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size1 MB
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