________________
५ / जैन न्यायविद्याका विकास : ११ बौद्ध परम्परामें जिस प्रकार धर्मकीर्तिने बौद्धदर्शन और बौद्धन्यायको प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय जैसे कारिकात्मक ग्रन्थोंका निर्माणकर निबद्ध किया है उसी प्रकार अकलंकदेवने भी जैनदर्शन और जैनन्यायको इन चार कारिकात्मक ग्रन्थों द्वारा निबद्ध किया है । न्यायविनिश्चय में ४३०, सिद्धि-विनिश्चयमें ३६७, प्रमाणसग्रहमें ८७ और लघीयस्त्रयमें ७८ कारिकायें हैं। चारों ग्रन्थोंकी कुल कारिकायें ९६२ हैं । प्रत्येक कारिका सूत्रात्मक, बह्वर्थगर्भ और गम्भीर है। चारों ग्रन्थ अत्यन्त क्लिष्ट, दुरवगाह और दुरूह है। चारों पर उनकी स्वोपज्ञवृत्तियाँ हैं, ये वृत्तियाँ भी अत्यन्त कठिन है। हर्षकी बात है कि इन चारों पर वैदुष्यपूर्ण व्याख्याएँ भी लिखी गई है। न्यायविनिश्चय पर स्याद्वादविद्यापति वादिराज ( ई० १०२५ ) ने न्यायविनिश्चयालंकार अपर नाम न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चय पर तार्किक शिरोमणि बृहदनन्तवीर्य (ई० ८५०) ने सिद्धिविनिश्चयालंकार तथा इन्होंने ही प्रमाणसंग्रह पर प्रमाणसंग्रहभाष्य और आचार्य माणिक्यनंदि (ई० १०२८ ) के शिष्य आचार्य प्रभाचन्द्र (१०४३ ) ने लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपर नाम न्यायकूमदचन्द्र नामकी विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकायें लिखी है। इनमें प्रमाणसंग्रहभाष्य अनुपलब्ध है । शेष तीनों टीकायें उपलब्ध हैं, और अपने मूलके साथ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्लीसे प्रकाशित है । इन तीनोंका सुयोग्य सम्पादन स्व. पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य ने किया है । प्रमाणसंग्रहभाष्यका उल्लेख स्वयं अनन्तवीर्य ने अपने सिद्धि विनिश्चयालंकारमें अनेक स्थलों पर विस्तृत जाननेके लिए किया है । इससे प्रतीत होता है कि प्रमाणसंग्रहभाष्य भी एक विस्तृत टीका ग्रन्थ रहा है।
अकलंकदेवने इन चारों तर्कग्रन्थोंमें अन्य ताकिकोंकी एकान्तमान्यताओंकी कड़ी तथा मर्मस्पशी समीक्षा की है । जैनदर्शनमें मान्य प्रमाण, नय और निक्षेपके स्वरूप, उनके भेद, विषय तथा प्रमाणफलका विवेचन विशदतया किया है। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य इन दो प्रकारोंकी प्रतिष्ठा, परोक्ष-प्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम इन पांच भेदोंका निर्धारण, उनकी सयुक्तिक सिद्धि, उनके लक्षणों का प्रणयन तथा इन्हीं परोक्षभेदोंमें उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव आदि अन्य ताकिकोंके स्वीकृतप्रमाणोंका अन्तर्भाव, सर्वज्ञकी विविध युक्तिओंसे विशेष सिद्धि, अनुमानके साध्य-साधन अङ्गोंके लक्षण और भेदोंका विस्तृत निरूपण, कारण हेतु, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि अनिवार्य नये हेतुओंकी प्रतिष्ठा अन्यथानुपपत्तिके अभावसे एक अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका स्वीकार और उसके भेदरूपसे असिद्धादि हेत्वाभासोंका प्रतिपादन, वादका लक्षण, जय पराजय-व्यवस्था, दृष्टांत, धर्मी, जाति और निग्रहस्थानके स्वरूप आदिका कितना ही नया प्रतिष्ठापन करके जैन न्यायको अकलंक देखने न केवल समृद्ध एवं परिपुष्ट किया, अपितु उन्हें भारतीय दर्शनों एवं न्यायोंमें प्रतिष्ठित एवं गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया, जैसा बौद्धदर्शन और बौद्धन्यायको धर्मकीर्तिने दिया। अतः अकलंकको जनदर्शन और जैनन्यायके मध्यकालका प्रतिष्ठापक और इस कालको अकलंककाल कहा जा सकता है।
अकलंकके इस कार्यको उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों एवं जैन नैयायिकोंने गति प्रदान की, वीरसेन, हरिभद्र, कुमारनंदि, विद्यानंद, अनंतवीर्यप्रथम, वादीभसिंह, वादिराज, माणिक्यनंदि आदि मध्ययुगीन जैन ताकिकोंने उनके कार्यको निश्चय ही आगे बढ़ाया और उसे यशस्वी एवं प्रभावपूर्ण बनाया । अकलंकके गम्भीर और सूत्रात्मक निरूपण तथा चिन्तनको इन तार्किकोंने अपने ग्रन्थोंमें सुपुष्ट और विस्तृत किया है। वीरसेनकी सिद्धान्त एवं तर्क-बहला धवला-जयधवला टीकाएँ, हरिभद्र की अनेकान्तजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, वादन्यायविचक्षण कुमारनंदिका वादन्याय, विद्यानंदके विद्यानंदमहोदय, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और उसका भाष्य, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्य-शासन परीक्षा, युक्त्यनुशासनालंकार,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org