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________________ इन सातों व्यसनों में अन्य जितने भी व्यसन हैं तिलांजलि देकर हृदय कठोर बना लेता है ! वह आ उन सभी का अन्तर्भाव हो जाता है। अपने पुत्र पर भी दया नहीं रख पाता। ___ आचार्य हरिभद्र ने मद्यपान करने वाले व्यक्ति जैन साधना पद्धति में व्यसन-मुक्ति साधना के र में सोलह वोषों का उल्लेख किया है-वे दोष इस महल में प्रवेश करने का प्रथम द्वार है। प्रकार हैं-शरीर विद् प होना, शरीर विविध ___ जब तक व्यसन से मुक्ति नहीं होती, मनुष्य में PAN| रोगों का आश्रयस्थल होना, परिवार से तिरस्कृत / गुणों का विकास नहीं हो सकता। इसलिए जैनाहोना, समय पर कार्य करने की क्षमता न होना, I' चार्यों ने व्यसन मुक्ति पर अत्यधिक बल दिया है। कर अन्तर्मानस में द्वष पैदा होना, ज्ञान तन्तुओं का व्यसन से मुक्त होने पर जीवन में आनन्द का सागर धुधला हो जाना, स्मृति का लोप हो जाना, बुद्धि ठाठे मारने लगता है। भ्रष्ट होना, सज्जनों से सम्पर्क समाप्त हो जाना, (1) वाणो में कठोरता आना, नीच कुलोत्पन्न व्यक्तियों जनतन्त्रमूलक युग के लिए व्यसन-मुक्ति एक कुलहीनता, शक्तिह्रास, धर्म-अर्थ-काम ऐसी विशिष्ट आचार पद्धति है जिसके परिपालन न तीनों का नाश होना। से गृहस्थ अपना सदाचारमय जीवन व्यतीत कर महाकवि कालिदास ने एक मदिरा बेचने वाले सकता है और राष्ट्रीय विकास के कार्यों में भी सक्रिय योगदान दे सकता है। ON व्यक्ति से पूछा-तुम्हारे पात्र में क्या है? मटि बेचने वाला दार्शनिक था, उसने दार्शनिक शब्दा- दर्शन के दिव्य आलोक में ज्ञान के द्वारा चारित्र वली में कहा-कविवर ! मेरे प्रस्तुत पात्र में आठ की सुदृढ परम्परा स्थापित कर सकता है। यह एक दुर्गुण हैं-मस्ती, पागलपन, कलह, धृष्टता, बुद्धि ऐसी आचार-संहिता है जो केवल जैन गृहस्थों के का नाश, सच्चाई और योग्यता से नफरत, खुशी लिए ही नहीं, किन्तु मानवमात्र के लिए उपयोगी का नाश और नरक का मार्ग। है। यह व्यावहारिक जीवन को समृद्ध व सुखी बना शिकार को जैन ग्रन्थों में पापद्धि कहा गया है सकती है तथा निःस्वार्थ कर्त्तव्य भावना से प्रेरित पापद्धि से तात्पर्य है-पाप के द्वारा प्राप्त ऋद्धि. होकर राष्ट्र में अनुपम बल और ओज का संचार 30| इसलिए आचार्य ने शिकारी की मनोवृत्ति का विश्ले- कर सकती है। सम्पूर्ण मानव-समाज में सुख-शांति षण करते हुए कहा है-जिसे शिकार का व्यसन व निर्भयता भर सकती है / अतः व्यसनमुक्त लग जाता है वह मानव प्राणीवध करने में दया को जीवन सभी दृष्टियों से उपयोगी और उपादेय है। MEORIBE [ जिस तरह श्लेष्म में पड़ी हुई मक्खी श्लेष्म से बाहर निकलने में असमर्थ होती है वैसे ही विषय रूपी श्लेष्म में पड़ा हआ व्यक्ति अपने आपको विषय से अलग होने में असमर्थ पाता है।-इन्द्रिय पराजय शतक 46] तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ C 0 Jain Education International Polivale Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210777
Book TitleJain Dharm me Vyasanmukta Jivan ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaneshwar Mauar
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Comparative Study
File Size387 KB
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