Book Title: Jain Dharm me Vyasanmukta Jivan ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Janeshwar Mauar
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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________________ जैनधर्म में भगवान् महावीर की देन अद्विताय है, मृत्यु और KC व्यसन इन दोनों में से व्यसन अधिक हानिप्रद है। क्योंकि मृत्यु एक ( बार ही कष्ट देती है पर व्यसनी व्यक्ति जीवन-भर कष्ट पाता है और मरने के पश्चात् भी वह नरक आदि में विभिन्न प्रकार के कष्टों को झेलता है। जबकि अव्यसनी व्यक्ति जीते-जी भी यहाँ पर सुख के सागर पर तैरता है और मरने के पश्चात् स्वर्ग-सुख का उपभोग करता है। व्यसन शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका परिणाम है- कष्ट । यहाँ हेतु में परिणाम का उपचार किया गया है। जिन प्रवत्तियों का परिणाम कष्टकर हो, उन प्रवृत्तियों को व्यसन कहा गया है। व्यसन || जैनधर्म में व्यसनमुक्त एक ऐसी आदत है जिसके बिना व्यक्ति रह नहीं सकता, व्यसनों की प्रवृत्ति अचानक नहीं होती। पहले व्यक्ति आकर्षण से करता है फिर जीवन का उसे करने का मन होता है, एक ही कार्य को अनेक बार दोहराने पर वह व्यसन बन जाता है। तुलनात्मक अध्ययन ____ व्यसन बिना बोये हुए ऐसे विष वृक्ष हैं, जो मानवीय गुणों के na) गौरव को राख में मिला देते हैं। ये विषवृक्ष जिस जीवनभूमि में पैदा होते हैं, उसमें सदाचार के सुमन खिल ही नहीं सकते। व्यसनों की तलना हम उस गहरे गर्त से कर सकते हैं जिसकेर ऊपर हरियाली लहलहा रही हो, फूल खिल रहे हों,पर ज्यों ही व्यक्ति | उस हरियाली और फूलों से आकर्षित होकर उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करता है त्यों ही वह दल-दल में फँस जाता है। व्यसनशील व्यक्ति की बुद्धिमत्ता, कुलीनता आदि समाप्त हो जाती है। __ यों तो व्यसनों को संख्या का कोई पार नहीं है, वैदिक ग्रन्थों में व्यसनों की संख्या १८ बताई गई हैं। उन १८ में १० व्यसन कामज हैं। -प्रो. जनेश्वर मौआर और ८ व्यसन क्रोधज हैं। कामज व्यसन हैं-मुगया (शिकार), जुआ, दिन का शयन, पर-720 निन्दा, परस्त्रीसेवन, मद, नृत्यसभा, गीतसभा, वाद्य की महफिल और व्यर्थ भटकना। आठ क्रोधज व्यसन हैं-चुगली खाना, अतिसाहस करना, द्रोहा करना, ईर्ष्या, असूया, अर्थदोष, वाणी से दण्ड और कठोर वचन । __ जैनाचार्यों ने व्यसन के मुख्य सात प्रकार बताये हैं-जुआ, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परस्त्रीगमन । द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापद्धि चौर्य परदारसेगा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके घोरातिधोरं नरकं नयन्ति ।। १६६ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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