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भगवती
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म कि बाद में जोड़ा गया है। इस प्रकीर्णक समवाय में तीर्थंकरों के विद्वानों ने ज्ञाताधर्मकथा के इस मल्लि नामक अध्याय को अपेक्षाकृत पिता, उनकी माता, उनके पूर्वभव, उनकी शिविकाओं के नाम, परवर्तीकाल का माना है। इसमें मल्लि को स्त्री-तीर्थंकर मानकर उनके जन्म एवं दीक्षा नगर का उल्लेख मिलता है। मान्यता यह श्वेताम्बर-परम्परा की स्त्रीमुक्ति की अवधारणा को पुष्ट किया गया है कि ऋषभ और अरिष्टनेमि को छोड़कर सभी तीर्थंकरों ने है। इसी आधार पर कुछ दिगम्बर विद्वान् इसे श्वेताम्बर-दिगम्बर अपनी जन्मभूमि में दीक्षा ग्रहण की थी। सभी तीर्थंकर एक परम्परा के विभाजन के पश्चात् का मानते हैं। इसके मल्लि नामक देवदुष्य वस्त्र लेकर दीक्षित हुए। इसके साथ-साथ प्रत्येक तीर्थंकर अध्याय में ही तीर्थंकर-नाम-गोत्र-कर्म-उपार्जन की साधना-विधि ने कितने व्यक्तियों को साथ लेकर दीक्षा ली, इसका भी उल्लेख का उल्लेख है। मल्लि संबंधी यह विवरण निश्चित ही समवायांग इसमें मिलता है। इसी क्रम में समवायांग में दीक्षा लेते समय के का समकालीन या अपेक्षाकृत कुछ परवर्ती है। व्रत, प्रथम भिक्षादाता, प्रथम भिक्षा कब मिली इसका भी उल्लेख है। इसमें तीर्थंकरों के प्रथम शिष्य और शिष्याओं का भी
अन्य अंग आगम उल्लेख है। समवायांग में सर्वप्रथम २४ तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों जहाँ तक उपासकदशा का प्रश्न है इसमें महावीर के काल का भी उल्लेख हुआ है।
के १० श्रावकों का विवरण है, इसी प्रसंग में महावीर के कुछ उपदेश भी इसमें उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु इसमें २४ तीर्थंकरों
की अवधारणा का स्पष्ट रूप से कोई संकेत नहीं है। इसी प्रकार अंग-आगमों के क्रम की दृष्टि से समवायांग के पश्चात् । अंतकृद्दशा में यद्यपि महावीर और अरिष्टनेमि के काल के कुछ भगवतीसूत्र का क्रम आता है, यद्यपि स्मरण रखना होगा कि साधकों के विवरण मिलते हैं किन्तु इसमें अरिष्टनेमि और विद्वानों द्वारा रचनाकाल की दृष्टि से भगवती को समवायांग की कृष्ण-संबंधी जो विवरण दिए गए हैं, वे लगभग ५वीं शताब्दी के अपेक्षा पूर्ववर्ती माना गया है। भगवतीसूत्र भगवान् महावीर के पश्चात् के ही हैं, क्योंकि अंतकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु, संबंध में समवायांग की अपेक्षा अधिक जानकारी प्रस्तुत करता जिसका विवरण स्थानांग में है, कृष्ण से संबंधित किसी विवरण है। इसमें देवानन्दा को महावीर की माता कहा गया है। महावीर का कोई संकेत नहीं देती है। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान विषयवस्तु और गोशालक के पारस्परिक संबंध को लेकर इसमें विस्तार के लगभग ७वीं शताब्दी के आसपास की है। यद्यपि इसमें तीर्थंकरों साथ चर्चा हुई है तथापि विद्वानों ने इस अंश को परवर्ती और के प्रवचन आदि का उल्लेख है किन्तु स्पष्ट रूप से तीर्थंकरों के प्रक्षिप्त माना है। भगवती में महावीर और जामालि के विवाद संबंध में कोई भी विवरण इसमें नहीं मिलता है। यही स्थिति को भी स्पष्ट किया गया है, फिर भी इसमें महावीर के अतिरिक्त औपपातिक और विपाकसूत्र की भी है। अन्य तीर्थंकरों के संबंध में नामों के उल्लेख के अतिरिक्त हमें विस्तार से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। महावीर से उपाय आगम साहित्य पावापत्यों (पार्श्व के अनुयायियों) के मिलने एवं चर्चा करने उपांग साहित्य में राजप्रश्नीयसूत्र में पार्खापत्य केशी का का उल्लेख तो इसमें है किन्तु पार्श्व के जीवनवृत्त का भी उल्लेख है किन्तु इसमें २४ तीर्थंकरों की अवधारणा को लेकर अभाव ही है। इससे निश्चित ही ऐसा लगता है कि समवायांग के विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। तीर्थंकरों के जीवनवृत्त तीर्थंकर-संबंधी विवरण भगवती की अपेक्षा परवर्तीकाल के हैं। की दृष्टि से उपांग साहित्य की जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को महत्वपूर्ण
माना जा सकता है, क्योंकि इसमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ज्ञाताधर्मकथा
के कालचक्र का विवेचन करते हुए, उसमें होने वाले तीर्थंकरों ज्ञाताधर्मकथा यद्यपि अन्य तीर्थंकरों के संबंध में तो विशेष का उल्लेख किया गया है। इसमें द्वितीय और तृतीय वक्षस्कार सूचनाएँ नहीं देता है किन्तु ११वें तीर्थंकर मल्लि के संबंध में इसमें अर्थात् अध्याय में क्रमशः ऋषभदेव एवं भरत के जीवनवृत्त का विस्तर से विवरण उपलब्ध है। संभवतः इतना विस्तृत विवरण भी विस्तृत उल्लेख मिलता है। इसमें ऋषभ के एक वर्ष तक अन्य किसी तीर्थंकर के संबंध में अंग-आगमों में उपलब्ध नहीं है। चीवरधारी और बाद में नग्न होने की बात कही गई है।
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