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करना,
• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म जिससे उन्हें मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा न पहुँचे। ९. वैयाकृत्यकरण - गुणीजनों अथवा ऐसे लोगों की, जिन्हें सहायता की अपेक्षा है, सेवा करना ।
१०-१३. चतुःभक्ति - अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र इन चारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना । १४. आवश्यकापरिहाण सामायिक आदि षडावश्यकों के अनुष्ठान सदैव करते रहना ।
१५. मोक्षमार्ग - प्रभावना अभिमान को त्यागकर मोक्षमार्ग की साधना करना तथा दूसरों को उस मार्ग का उपदेश देना । १६. प्रवचनवात्सल्य - जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है, वैसे ही सहधर्मियों पर निष्काम स्नेह रखना ।
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श्वेताम्बर परम्परा में ज्ञाताधर्मकथा के आधार पर तीर्थंकर नामकर्म के उपार्जन हेतु निम्नांकित (२०) बीस साधनाओं को आवश्यक माना गया है३८
१-७. अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत एवं तपस्वी इन सातों के प्रति वात्सल्य भाव रखना।
८. अनवरत ज्ञानाभ्यास करना ।
९. जीवादि पदार्थों के प्रति यथार्थ श्रद्धारूप शुद्ध सम्यक्त्व का होना । गुरुजनों का आदर करना ।
१०.
११. प्रायश्चित्त एवं प्रतिक्रमण द्वारा अपने अपराधों की
क्षमायाचना करना ।
१२. अहिंसादि व्रतों का अतिचार- रहित योग्य रीति से पालन करना । १३. पापों की उपेक्षा करते हुए वैराग्यभाव धारण करना ।
१४. बाह्य एवं आभ्यन्तर तप करना ।
१५. यथाशक्ति त्यागवृत्ति को अपनाना ।
१६. साधुजनों की सेवा करना ।
१७. समता भाव रखना।
१८. ज्ञान - शक्ति को निरंतर बढ़ाते रहना ।
१९. आगमों में श्रद्धा रखना ।
२०. जिन-प्रवचन का प्रकाश रखना ।
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१०. तीर्थंकरों से संबंधित विवरण का विकास
तीर्थंकरों की संख्या एवं उनके जीवनवृत्त आदि को लेकर सामान्यतया जैनसाहित्य में बहुत कुछ लिखा गया किन्तु यदि हम ग्रंथों पर कालक्रम की दृष्टि से विचार करें, तो प्राचीनतम जैन आगम आचारांग में महावीर के संक्षिप्त जीवनवृत्त को छोड़कर हमें अन्य तीर्थंकरों के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं मिलती । यद्यपि आचारांग सामान्यरूप से भूतत्कालिक, वर्तमानकालिक और भविष्यत्कालिक अरिहंतों का बिना किसी नाम के निर्देश अवश्य करता है। रचनाकाल की दृष्टि से इसके पश्चात् कल्पसूत्र का क्रम आता है, उसमें महावीर के जीवनवृत्त के साथ-साथ पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव के संबंध में भी किंचित् विवरण मिलता है, शेष तीर्थंकरों का केवल नामनिर्देश ही है। इसके पश्चात् तीर्थंकरों के संबंध में जानकारी देने वाले ग्रंथों में समवायांग और आवश्यकनियुक्ति का काल आता है। समवायांग और आवश्यकनिर्युक्ति संक्षिप्त शैली में ही सही किन्तु वर्तमान, भूतकालिक और भविष्यत्कालिक तीर्थंकरों के संबंध में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं। दिगम्बर परम्परा में ऐसा ही विवरण यतिवृषभ की तिलोयपण्णति में मिलता है। श्वेताम्बर आगम-ग्रंथ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ऋषभ के संबंध में और ज्ञाताधर्मकथा मल्लि के संबंध में विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं। तिलोयपण्णति के बाद दिगम्बर- परम्परा में पुराणों का क्रम आता है। पुराणों में तीर्थंकरों के जीवनवृत्त के संबंध में विपुल सामग्री उपलब्ध है। श्वेताम्बर - परम्परा में स्थानांग, समवायांग, कल्पसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यक निर्युक्ति, विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूर्णि, चउपन्नमहापुरिसचरियं एवं त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित्र और कल्पसूत्र पर लिखी गई परवर्ती टीकाएँ तीर्थंकरों का विवरण देने वाले महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। समवायांग में उपलब्ध विवरण
ऐसा लगता है कि तीर्थंकर - संबंधी विवरणों में समयसमय पर वृद्धि होती रही है। हमारी जानकारी में २४ तीर्थंकरों की अवधारणा और तत्संबंधी विवरण सर्वप्रथम श्वेताम्बर परम्परा में समवायांग और विमलसूरि के पउमचरियं में प्राप्त होता है। यद्यपि स्थानांग एवं समवायांग की गणना अंग-आगमों में की जाती है किन्तु समवायांग में २४ तीर्थंकर संबंधी जो विवरण है, वह उसके परिशिष्ट के रूप
में है और ऐसा लगता है।
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