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करती. उन
प्रकार से वर्णनीय
वर्णन करने वा
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - २७. अद्भुतत्व - आश्चर्यजनक अद्भुत नवीनताप्रदर्शक वचन श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में तीर्थंकरों को जिन होना।
दोषों से रहित माना गया है उनमें मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ २८. अनतिविलम्बित्व - अतिविलम्ब से रहित धाराप्रवाह से।
सनिली . अतिविलास रहित धारापवाद से दिगम्बर-परम्परा तीर्थंकर में क्षुधा और तृषा का अभाव मानती बोलना।
है, वहाँ श्वेताम्बर-परम्परा तीर्थंकर में इनका अभाव नहीं मानती २९. विभ्रमविक्षेपकिलकिञ्चितादिविमुक्तत्व - मन की भ्रान्ति,
है, क्योंकि श्वेताम्बर-परम्परा में केवली का कवलाहार (भोजनविक्षेप और रोष, भयादि से रहित वचन होना।
ग्रहण) माना गया है, जबकि दिगम्बर-परम्परा इसे स्वीकार नहीं
करती, उनके अनुसार केवली भोजन ग्रहण नहीं करता है। शेष ३०. अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्व - अनेक प्रकार से वर्णनीय
बातों में दोनों में समानता है। वस्तु-स्वरूप के वर्णन करने वाले वचन होना। ३१. आहितविशेषत्व - सामान्य वचनों से कुछ विशेषतायुक्त ९. तीर्थंकर बनने की योग्यता वचन होना.
तीर्थंकर पद की प्राप्ति के लिए जीव को पूर्व जन्मों से ३२. साकारत्व - पृथक्-पृथक् वर्ण, पद, वाक्य के आकार से विशिष्ट साधना करनी होती है। जैनधर्म में इस हेत जिन विशिष्ट युक्त वचन होना।
साधनाओं को आवश्यक माना गया है उनकी संख्या को लेकर ३३. सत्वपरिगृहीत्व - साहस से परिपूर्ण वचन होना।
जैनधर्म के सम्प्रदायों में मतभेद है। तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के ३४. अपरिखेदित्व - खेद-खिन्नता से रहित वचन होना। आधार पर दिगम्बर सम्प्रदाय तीर्थंकर नामकर्म-उपार्जन हेतु ३५. अव्युच्छेदित्व - विवक्षित अर्थ की सम्यक् सिद्धि वाले निम्नस्थ सोलह बातों की साधना को आवश्यक मानता है३७वचन होना।
१. दर्शनविशुद्धि - वीतरागकथित तत्त्वों में निर्मल और दृढ़ ८. तीर्थंकर : निर्दोष व्यक्तित्व
रुचि। जैन-परम्परा में तीर्थंकर को निम्नस्थ १८ दोषों से रहित २. विनयसम्पन्नता - मोक्षमार्ग और उसके साधकों के प्रति माना गया है३४ - १. दानान्तराय २. लाभान्तराय ३. वीर्यान्तराय ४. भोगान्तराय ५. उपभोगान्तराय ६. मिथ्यात्व ७. अज्ञान ८. ३. शीलवतानतिचार - अहिंसा, सत्यादि मूलव्रत तथा उनके अविरति ९. कामेच्छा १०. हास्य, ११. रति १२. अरति १३. पालन में उपयोगी अभिग्रह आदि दूसरे नियमों का प्रमाद - शोक १४. भय १५. जुगुप्सा १६. राग १७. द्वेष और १८. निद्रा। रहित होकर पालन करना।
श्वेताम्बर-परम्परा में प्रकारान्तर से उन्हें निम्नांकित १८ ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग - तत्त्वविषयक ज्ञान-प्राप्ति में सदैव दोषों से भी रहित कहा गया है :३५
प्रयत्नशील रहना। १. हिंसा २. मृषावाद ३. चोरी ४. कामक्रीडा ५. हास्य ६. रति ७. ५. अभीक्ष्ण संवेग - सांसारिक भोगों से जो वास्तव में सुख के अरति ८. शोक ९. भय १०. क्रोध ११. मान १२. माया १३. लोभ स्थान पर दुःख के ही साधन बनते हैं, डरते रहना। १४. मद १५. मत्सर १६. अज्ञान १७. निद्रा और १८. प्रेमा
यथाशक्ति त्याग- अपनी शक्त्यनरूप आहारदान. अभयदान. दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथ नियमसार में तीर्थंकर को ज्ञानदान आदि विवेकपूर्वक करते रहना। निम्नांकित १८ दोषों से रहित कहा गया है३६ -
७. यशाशक्ति तप - शक्त्यनुरूप विवेकपूर्वक तप-साधना १. क्षुधा २. तृषा ३. भय ४. रोष (क्रोध) ५. राग ६. मोह ७. करना। चिन्ता ८. जरा ९. रोग १०. मृत्यु १२. स्वेद १२.खेद १३. मद १४. ८. संघ-साधु-समाधिकरण - चतुर्विधसंघ और विशेषकर रति १५. विस्मय १६. निद्रा १७. जन्म १८. उद्वेग (अरति)। साधुओं को समाधि-सुख पहुँचाना अर्थात् ऐसा व्यवहार
फिर का
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