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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
उपांग- साहित्य के 'वृष्णीदशा' में कृष्ण के परिजनों से संबंधित उल्लेख हैं किन्तु तीर्थंकर की अवधारणा और तीर्थंकरों के जीवनवृत्तों का इसमें भी अभाव है।
मूल आगम ग्रन्थ
मूलसूत्रों में उत्तराध्ययन, अपेक्षाकृत प्राचीन माना जाता है, इसमें केवल पार्श्व, महावीर, अरिष्टनेमि और नमि के संबंध में उल्लेख मिलते हैं। यद्यपि इन उल्लेखों में उनके जीवनवृत्तों की अपेक्षा उसके उपदेशों और मान्यताओं पर ही अधिक बल दिया गया है, तथापि इतना निश्चित है कि उत्तराध्ययन के ये उल्लेख समवायांग की अपेक्षा प्राचीन हैं। उत्तराध्ययन के २२वें और २३वें अध्याय में क्रमशः अरिष्टनेमि और पार्श्व के संबंध में जानकारी उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययन का २२वाँ रथनेमि नामक अध्याय यद्यपि मूलतः रथनेमि और राजीमती (राजुल ) के घटना-प्रसंग को लेकर लिखा गया है किन्तु इस अध्याय में अरिष्टनेमि के विवाह-प्रसंग का भी उल्लेख है । २३वें अध्याय में मुख्य रूप से तीर्थंकर पार्श्व और महावीर की आचार - संबंधी विभिन्नताओं के उल्लेख मिलते हैं किन्तु उत्तराध्ययन में किसी तीर्थंकर का जीवनवृत्त नहीं दिया गया है। दशवैकालिक, अनुयोगद्वार और नन्दी में भी तीर्थंकरों के जीवनवृत्त नहीं हैं।
कल्पसूत्र
तीर्थंकरों के जीवनवृत्त को सूचित करने वाले आगामिक ग्रंथों में कल्पसूत्र महत्त्वपूर्ण है। कल्पसूत्र अपने आपमें कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। यह दशाश्रुतस्कन्ध नामक छेदसूत्र क अष्टम अध्याय ही है किन्तु इसके जिनचरित्र नामक खण्ड में महावीर के साथ-साथ पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभ के जीवनवृत्तों का भी संक्षिप्त विवरण मिलता है। अरिष्टनेमि से लेकर ऋषभ तक के बीच के तीर्थंकरों के नाम एवं उनके बीच की कालावधि का भी इसमें उल्लेख है।
नियुक्ति एवं भाष्य
श्वेताम्बर - परम्परा के इन आगामिक ग्रंथों के अतिरिक्त आवश्यक निर्युक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य में भी तीर्थंकरों के संबंध में और उनके माता-पिता आदि के बारे में सूचनाएँ मिलती हैं।
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आवश्यक नियुक्ति में तीर्थंकरों के पूर्वभव का भी सांकेतिक उल्लेख हुआ है। आवश्यकनिर्युक्ति तीर्थंकरों की जन्मतिथि का भी निर्देश करती है। इसमें तीर्थंकरों के वर्षीदान का उल्लेख है साथ ही यह भी बताया गया है कि किस तीर्थंकर ने कौमार्य - अवस्था में दीक्षा ली और किसने बाद में। इसमें तीर्थंकरों के निर्वाण-तप तथा निर्वाण तिथियों का भी उल्लेख मिलता है। तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई आदि का उल्लेख स्थानांग एवं समवायांग में भी उपलब्ध है किन्तु वह एकीकृत रूप में न होकर बिखरा हुआ है, जबकि आवश्यकनिर्युक्ति में उसे एकीकृत रूप में प्रस्तुत किया गया है । यथा - आवश्यक नियुक्ति के अनुसार सभी तीर्थंकर स्वयं ही बोध प्राप्त करते हैं, लोकान्तिक देव तो उन्हें व्यवहार के कारण प्रतिबोधित करते हैं, सभी तीर्थंकर एक वर्ष तक दान देकर प्रव्रजित होते हैं। महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य को छोड़ अन्य सभी तीर्थंकरों ने राज्यलक्ष्मी का भोग करने के पश्चात् ही दीक्षा ली थी, जबकि अवशिष्ट पाँच कौमार्य -अवस्था में दीक्षित हुए थे। शान्ति, कुंथु और अर ये तीन तीर्थंकर चक्रवर्ती थे, शेष सामान्य राजा । महावीर अकेले, पार्श्व और मल्लि ३०० व्यक्तियों, वासुपूज्य - ६०० व्यक्तियों, ऋषभ - ४००० व्यक्तियों एवं शेष सभी १००० व्यक्तियों के साथ दीक्षित हुए थे। सुमति ने बिना किसी व्रत के साथ दीक्षा ग्रहण की, वासुपूज्य ने उपवास के साथ दीक्षा ग्रहण की, पार्श्व और मल्लि ने ३ उपवास के साथ दीक्षा ली और शेष सभी ने २ दिन के उपवास के साथ दीक्षा ली। ऋषभ वनिता से, अरिष्टनेमि द्वारका से और अन्य अपनी-अपनी जन्मभूमि में दीक्षित हुए थे। ऋषभ ने सिद्धार्थवन में, वासुपूज्य ने विहारगृह (वन) में, धर्मनाथ ने वप्पग्राम में, मुनि सुमति ने नीलगुफा में, पार्श्व ने आम्रवन में, महावीर ने ज्ञातृवन में तथा शेष सभी तीर्थंकरों ने सहस्त्र आम्रवन में दीक्षा ग्रहण की। पार्श्व, अरिष्टनेमि, श्रेयांस, सुमति और मल्लि पूर्वाह्न में दीक्षित हुए। ऋषभ, नेमि, पार्श्व और महावीर ने अनार्य भूमि में भी विहार किया, शेष सभी ने मगध, राजगृह आदि भूमि में ही विहार किया।
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प्रथम तीर्थंकर को १२ अंग और शेष को ११ अंग का श्रुतलाभ रहा। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने पंचयाम का और शेष ने चातुर्याम का उपदेश दिया। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर में सामायिक और छेदोस्थापनीय ऐसे दो चारित्रों का विकल्प होता है, जबकि शेष में सामायिक चारित्र ही होता है। इसमें २४
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