________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड उपसंहार स्याद्वाद सुख, शान्ति और सामंजस्य का प्रतीक है। विचार के क्षेत्र में अनेकान्त, वाणी से क्षेत्र के स्याद्वाद और आचरण के क्षेत्र में अहिंसा, यह सब भिन्न-भिन्न दृष्टियों को लेकर एक रूप ही है। अर्थक्रिया न नित्यवाद में बनती है, न अनित्यवाद में, अतः दोनों वाद परस्पर विध्वंसक है। स्याद्वाद एक समुद्र है जिसमें सारे वाद विलीन हो जाते हैं। अतः स्याद्वाद मानव के लिये, आत्म-कल्याण का अमोघ साधन है / उससे ज्ञान का विस्तार होता है और श्रद्धा निर्मल बनती है। आज जब कि सम्पूर्ण विश्व बारूद के ढेर पर बैठा है और एटमबमों के जोर पर दम्भ कर रहा है, तब इस प्रकार अनेकान्तात्मक विचारों के अनुशीलन से अन्धविश्वास, साम्प्रदायिक संकीर्णता और असहिष्णुता आदि कुप्रवृत्तियाँ नष्ट हो सकती हैं और मानव लोक-कल्याणवादी हो सकता है / आचरण को शुद्ध कर स्याद्वादरूप वाणी द्वारा सत्य की प्रस्थापना कर, अनेकान्तरूप वस्तु-तत्त्व को प्राप्त कर मानव आत्मसाक्षात्कार कर सकता है और अनन्त चतुष्टय एवं सिद्धत्व की प्राप्ति कर सकता है। समावयंता बयणाभिघाया, कण्णंगया दुम्मणियं जणन्ति / धम्मोत्ति किच्चा परमग्ग सूरे, जिइन्दिए जो सहइ स पुज्जो / –दशवकालिक है।३८ जिनके सुनने मात्र से मन में क्रोध उमड़ पड़ता है, ऐसे वचनाभिघातोकटु शब्दों को जो 'क्षमा करना धर्म है' यह मानकर सह जाता है, वह उत्कृष्ट वीर जितेन्द्रिय साधक वस्तुत: पूज्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org