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संथारा - संलेषणा : समाधिमरण की कला
योग्यता- संथारा कौन ले सकता है और कौन नहीं, यह भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है और इसका समाधान जैन ग्रंथों के आधार पर ही करने का प्रयास किया जा रहा है। उत्तराध्ययन में लिखा गया है कि संयमशील, जितेन्द्रिय और चारित्रयुक्त सकाम तथा अकाम मरण के भेद जानने वाले तथा मृत्यु के स्वरूप के ज्ञाता एवं मृत्यु से भयभीत नहीं होने वाले व्यक्ति ही संथारा लेने के योग्य हैं । ६ यहाँ योग्यता संबंधी विवेचन स्पष्ट है। प्रायः कोई भी मरना नहीं चाहता है। अंतिम क्षण तक व्यक्ति जीना चाहता है। मृत्यु को स्वीकार करना सबके वश की बात नहीं है। आचार्य वट्टकेर द्वारा प्रस्तुत विचार अत्यन्त उल्लेखनीय है-ममत्वरहित, अहंकार रहित, कषायरहित, धीर, निदानरहित, सम्यग्दर्शन से संपन्न, इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला, सांसारिक राग को समझने वाला, अल्प कषाय वाला, इन्द्रिय निग्रह में कुशल, चरित्र को स्वच्छ रखने में प्रयासरत्, संसार के सभी प्रकार के दुःखों को जानने वाला तथा इनसे विरत रहने वाला व्यक्ति संथारा लेने का अधिकारी है। व्यक्ति सबसे अधिक मोह अपने से ही करता है। सामान्य रूप से उसके सारे प्रयत्न चाहे वे परोक्ष हैं या प्रत्यक्ष शरीर को सुख पहुँचाने के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। ऐसे शरीर का त्याग करना साधारण बात नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को संयमी, ज्ञानी, भौतिक- अभौतिक सुखों को समझने वाला होना चाहिए। उसमें निम्न गुणों का समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
१. सांसारिक आकांक्षाओं से मुक्त।
२. इन्द्रिय जीत
३. राग-द्वेष से मुक्त।
४. अल्प कषाय वाला।
५. गृहीत व्रतों के महत्त्व को समझने वाला।
६. जीवन और मृत्यु दोनों को अनिवार्य एवं आवश्यक मानने
वाला।
विधि-जैन ग्रंथों में संथारा लेने की विधि का वर्णन विस्तारपूर्वक हुआ है। यहाँ छह मास से लेकर बारह वर्ष तक के संथारा का विधान मिलता है। समयावधि के अनुसार जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट ये तीन प्रकार के संथारा माने गए हैं। इनका काल क्रमशः छह मास, १२ मास तथा १२ वर्ष का है।" उत्कृष्ट जिसका कालमान १२ वर्ष का है उसमें साधक विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं जो इस प्रकार है ९ वर्ष के प्रथम चार वर्ष में साधक दुग्ध आदि विकृतियों (रसों) का परित्याग करता है तथा दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करता है फिर दो वर्ष तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करता है। भोजन के दिन आयाम आचाम्ल करता है। तत्पश्चात् ग्यारहवे वर्ष में पहले छह महीने तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चोला) तप नहीं करता है तथा बाद के छह महीने में विकृष्ट तप करता है। इस पूरे वर्ष में पारणे के दिन आचाम्ल किया जाता है। बारहवें वर्ष
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में एक वर्ष तक कोटि सहित अर्थात् निरंतर आचामल करके फिर मुनि द्वारा पक्ष या एक मास के आहार से अनशन तप किया जाता है।
संथारा लेने के क्रम में आहार का त्याग तो किया ही जाता है। लेकिन साधक को कुछ अन्य उपक्रम भी करने पड़ते हैं। साधक सर्वप्रथम ऐसे स्थान की खोज करता है जहां वह शांतिपूर्वक अपने तपों का अभ्यास कर सके। इस हेतु वह ग्राम या वन में जाकर अचित्त भूमि का अवलोकन करता है और वहाँ कुश, घास आदि अचित वस्तुओं की सहायता से संस्तारक बना लेता है । १० इस संस्तारक पर आरूढ़ होकर वह समत्व की साधना करता है। वह राग-द्वेष से मुक्त होकर अपने शरीर के प्रति होने वाले ममत्व का भी त्याग करता है। रेंगने वाले जंतु जैसे चींटी आदि प्राणी या आकाश में उड़ने वाले पक्षी बील, गिद्धादि जमीन के अंदर रहने वाले जन्तु यथा सर्पादि उसके शरीर को कष्ट पहुँचाते हैं तो वह इनसे विचलित नहीं होता है। इनसे होने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करता है।" वह जन्म और मरण के संबंध में विचार करता है और दोनों को जीवन के लिए आवश्यक मानता है। वह यह विचार करता है कि हर्ष, विषाद, जरा आदि शरीर के ही कारण हैं क्योंकि यह शरीर ही जन्म-मरण, सुख-दुःख का उपभोग करता है । १२ इस प्रकार वह ममत्व रहित होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। जब मरण काल आता है तो बिना किसी भाव के सहजतापूर्वक उसे स्वीकार करते हुए देहत्याग करता है।
भेद-संथारा के तीन भेद हैं१३ (क) भक्त प्रत्याख्यानमरण, (ख) इंगिनीमरण और (ग) प्रायोपगमनमरण।
(क) भक्तप्रत्याख्यानमरण-चारों प्रकार के आहार (अशन, पान, खादिम, स्वादिम) का त्याग करके समभावपूर्वक देह त्याग करने की कला को भक्तप्रत्याख्यानमरण संथारा कहते हैं। इसे स्वीकार करने वाला साधक अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है और दूसरों से भी करवा सकता है। इसकी अवधि कम से कम अन्तर्मुहूर्त अधिकतम बारह वर्ष तथा मध्यम अन्तर्मुहूर्त से ऊपर तथा बारह वर्ष से कम है । १४
(ख) इंगिनीमरण- इस संथारा को ग्रहण करने वाला साधक एक क्षेत्र नियत कर लेता है तथा ऐसी प्रतिज्ञा ले लेता है कि इस सीमा क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊँगा। इस संथारा व्रत को स्वीकार करने वाला अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है किसी अन्य से नहीं करवाता है।
(ग) प्रायोपगमन मरण-संधारा की इस प्रक्रिया में साधक अपनी संपूर्ण क्रियाओं का निषेध कर देता है। वह अपने शरीर की सेवा न तो स्वयं करता है और न किसी से करवाता है।
अतिचार संथारा के क्षण में व्यक्ति के मन में नाना प्रकार के विचार चलते रहते हैं लेकिन जिन विचारों के कारण