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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
जैन दर्शन में संथारा
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-डॉ. रज्जन कुमार वर्तमान युग में ऐच्छिक मृत्युवरण का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। उसे अन्य व्यक्तियों का सहयोग लेना पड़ता है, लेकिन कुछ ऐसे DOESDAE
व्यक्ति को स्वेच्छापूर्ण मृत्यु प्राप्त करने का अधिकार है या नहीं यह कार्य हैं जिन्हें वह स्वयं अपने दैहिक अंगों की सहायता से करता
आधुनिक नीति-दर्शन की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। इसके साथ ही । है। दुर्भाग्यवश यदि वह अपने इस कार्य का संपादन स्वयं नहीं कर HODac यह प्रश्न भी बहुचर्चित है कि क्या इच्छापूर्वक शरीर त्याग के सभी पाता है। उन अंगों में पुनः शक्ति का संचार होना संभव नहीं है.
प्रयत्न आत्महत्या की कोटि में आते हैं अथवा नहीं? नीति और वह वनस्पति की तरह जीवित शरीर मात्र है तथा वह जो भी धर्म-दर्शन के विद्वानों के इस सम्बन्ध में अनेक मत हैं। इसी प्रकार | आहार ग्रहण कर रहा है वह शरीर में नहीं लग रहा है अर्थात् असाध्य रोग से या असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति अपना जीवन उसका शरीर आहार ग्रहण नहीं कर पा रहा है. उसे बचाने के सारे समाप्त कर देना चाहता है तो क्या उसे मृत्युदान देने वाला व्यक्ति प्रयत्न निष्फल हो चुके हैं। उसका जीवन भार स्वरूप हो गया है। हत्या का अपराधी है अथवा वह स्वयं आत्महत्या का दोषी है। सेवा करने वाले तथा सेवा लेने वाले दोनों थक गए हों, तो ऐसे आज ये सभी प्रश्न नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि से गंभीर चिन्तन की समय व्यक्ति द्वारा आहार त्याग करने का संकल्प ही संथारा है अपेक्षा रखते हैं।
क्योंकि उस व्यक्ति को यह भान हो जाता है कि शरीर को सेवा देने प्राचीन सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में ऐच्छिक मृत्युवरण
से कोई लाभ नहीं होने वाला है। उत्तराध्ययन में इसे पंडितमरण को स्वीकृत किया जाता रहा है। भारतवर्ष में पर्वत या वृक्ष से
कहा गया है।३ गिरकर अथवा अपने शीश या अंग विशेष की बलि चढ़ाकर मृत्यु समय-अब प्रश्न उठता है कि संथारा लेने का उपयुक्त अवसर प्राप्त करने की परम्परा प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। ये क्या है? कारण कि अनायास कोई व्यक्ति मरने लगे और यह सभी मृत्यु प्राप्त करने के वीभत्स ढंग हैं जिन्हें अनुचित माना जाता । घोषणा कर दे कि मैं संथारा ले रहा हूँ तो वस्तुतः उसका यह रहा है और इनका विरोध भी हुआ है। लेकिन जैनधर्म में संथारा देहत्याग संथारा की कोटि में नहीं आयेगा। इस सम्बन्ध में हम के रूप में मृत्युवरण की प्रथा प्राचीन काल से लेकर आज तक आराधनासार में उद्धृत प्रसंग पर विचार कर सकते हैं-"जरारूपी अबाधगति से चली आ रही है। कभी भी इसका विरोध नहीं हुआ। व्याधि जब देह पर आक्रमण करे, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-शब्द को ग्रहण है। यह मृत्यु प्राप्त करने की एक ऐसी कला है जिसे महोत्सव के करने वाली इन्द्रियां अपने विषयों को ग्रहण करने में असमर्थ हो रूप में मनाया जाता है। जैन परम्परा में इसे कई नामों से अभिहित | जाएँ, आयुरूपी जल पूर्णरूपेण छीज जाए, शरीर की हड्डियों की किया गया है-संलेखना, संथारा, समाधिमरण, संन्यासमरण, मृत्यु- संधियों का बंध तथा शिराओं और स्नायुओं से हड्डियों के जोड़ महोत्सव, सकाममरण, उद्युक्तमरण, अंतक्रिया आदि। प्रस्तुत निबंध शिथिल हो जाएँ अर्थात् शरीर इतना अधिक कृशकाय हो जाए कि में जैनधर्म में वर्णित संथारा के स्वरूप पर प्रकाश डाला जा रहा है। वह स्वयं काँपने लगे आदि अवस्थाएँ ही संथारा ग्रहण करने के
लिए उपयुक्त हैं।"४ यहाँ स्पष्ट कर दिया गया है कि पूर्ण स्वरूप-संथारा या संलेखना के स्वरूप पर प्रकाश डालने से
निःसहायता की अवस्था में ज्ञान से युक्त होकर ही संथारा ग्रहण पहले हम यह जान लें कि वस्तुतः यह है क्या? जीवन की अंतिम
किया जा सकता है। इस संबंध में हम आचार्य श्री तुलसी के मंतव्य बेला में अथवा किसी आसन्न संकटापन्न अवस्था में जिसमें जान
को भी देख सकते हैं-"व्यक्ति का जीवन जब भारस्वरूप हो जाए सब जाने की पूरी संभावना है के समय सभी तरह के भावों से मुक्त
(वृद्धावस्था, रोग, उपसर्गादि के कारण) तथा वह अपनी आवश्यक होकर संपूर्ण आहार त्याग करके आने वाली मृत्यु की प्रतीक्षा करने
क्रियाओं का सम्पादन ठीक से नहीं कर पाए तो धर्म की रक्षा का नाम ही संथारा है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार “उपसर्ग,
हेतु संथारा व्रत ले सकता है।"५ इन सबका प्रतिफलित यही निक दुर्भिक्ष, जरा, असाध्य रोग अथवा इसी तरह की अन्य प्राणघातक
ला कि व्यक्ति संथारा निम्नलिखित परिस्थितियों में ग्रहण कर अनिवार्य परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा अथवा
सकता हैसमभाव की साधना के लिए जो देहत्याग किया जाता है वह संथारा के नाम से जाना जाता है।"२
१. शारीरिक दुर्बलता। संथारा में जो देहत्याग किया जाता है उसके पीछे देह में उत्पन्न
२. अनिवार्य मृत्यु के प्रसंग उपस्थित होने पर। व होने वाले कष्टों से बचने का भाव नहीं रहता है। यहाँ व्यक्ति के
३. अनिवार्य कार्यों के सम्पादन नहीं कर सकने की मन में धर्म-रक्षा का भाव रहता है। मनुष्य जब तक जीवित रहता
परिस्थिति में। है वह कुछ न कुछ करता ही रहता है। अपने कार्य-संपादन के लिए ४. धर्म रक्षा हेतु।
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