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________________ जैन दर्शन में द्रव्य की अवधारणा जीव और जगत् मानव की आदितम समस्यायें रही हैं, क्या नहीं किया है उसने इन समस्याओं को सुलझाने के लिए, किन्तु क्या फिर भी मानव आज तक इन समस्याओं को सुलझा पाया है ? उत्तर नकारात्मक ही होगा । किन्तु क्या उत्तर की नकारात्मकता को सोचते हुए चिन्तन छोड़ा जा सकता है, पशुओं के खाने के भय से खेती नहीं छोड़ी जाती, यही कारण है कि संसार के लगभग सभी दर्शनों ने जीव और जगत् की विस्तृत व्याख्या की है। भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन ने जगत् की उत्पत्ति और उसके स्वरूप पर विस्तृत विचार किया है। आज जिस अणु या परमाणु का विश्व में संहारक रूप दिखाई दे रहा है तथा जिसकी उपलब्धि वैज्ञानिकों की अप्रतिम उपलब्धि कही जा रही है उसके सम्बन्ध में सदियों पूर्व जैनाचार्य विस्तृत विवेचना कर चुके थे। जैन दर्शन के अनुसार विश्व छः द्रव्यों में बंटा है। द्रव्य का लक्षण करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है दवं सहलक्यणियं उष्पादव्वयधुवत्तसंत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥' अर्थात् द्रव्य का लक्षण तीन प्रकार से है, प्रथम - द्रव्य का लक्षण सत्ता है, द्वितीय - द्रव्य का लक्षण उत्पाद व्यय - ध्रौव्य संयुक्त है, तथा तृतीय- द्रव्य का लक्षण गुणपर्यायाश्रित है। इन्हीं लक्षणों का विशदीकरण करते हुए आचार्य उमास्वामी कहते हैं- सद्द्रव्यलक्षणम् तथा उत्पादव्ययीव्ययुक्तं सत्' द्रव्य का लक्षण सत् है तथा सत् वह है जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों हों। अपनी जाति को न छोड़ते हुए, चेतन और अचेतन द्रव्य को जो अन्य पर्याय को प्राप्त होती है उसे उत्पाद कहते हैं। अपनी जाति का विरोध न करते चेतन-अचेतन हुए द्रव्य की पूर्व पर्याय का जो नाश है वह व्यय कहलाता है तथा अनादि स्वभाव के कारण द्रव्य में जो उत्पाद, व्यय का अभाव है, भव्य है।' वह द्रव्य का तीसरा लक्षण गुणपर्ययवद्द्रव्यम् * है अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्यायों वाला होता है। यहां भी द्रव्य का वही लक्षण है जो ऊपर है, केवल शब्दों का अन्तर है। द्रव्य की विशेषता को गुण कहते हैं तथा द्रव्य के विकार को पर्याय कहा जाता है। इस विकार या विक्रिया शब्द का अर्थ उत्पाद और व्यय है। किसी वस्तु की जब उत्पत्ति होती है तो उसमें पूर्व स्थिति का विनाश (व्यय) और नयी स्थिति का सृजन ( उत्पाद) होता है। यही विक्रिया या विकार है। जीव के असाधारण गुण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि हैं और साधारण गुण वस्तुत्व, प्रमेयत्व, सत्व आदि स्वीकार किये गये हैं। इसी प्रकार रूप रस गन्ध, स्पर्श पुद्गल के असाधारण गुण हैं तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल के क्रमशः गति हेतुत्व, स्थिति-हेतुत्व, अवगाहननिमित्तत्व और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण स्वीकार किये हैं। इन पांचों (पुद्गल, धर्म, अधर्म, (आकाश और काल ) के साधारण गुण वस्तुत्व, सत्व, प्रेमयत्व आदि हैं। 1 यहां प्रश्न उठ सकता है कि उत्पाद और व्यय परस्पर विरोधी गुण हैं और दो विरोधी गुणों का एक आधार में रहना सम्भव नहीं है । फिर ये दोनों कैसे रहते हैं ? किन्तु ऐसा प्रश्न निराधार है। अतः एक ही द्रव्य में अवस्था विशेष से तीनों गुण रह सकते हैं। यह बात एक दृष्टान्त द्वारा सुगम रीति से स्पष्ट हो सकेगी — कोई व्यक्ति, जिसके पास सोने का हार है, अपने हार से कड़ा बनवाना चाहता है। ऐसी १. कुन्दकुन्द : पंचास्तिकाय, परम श्रुठप्रभावक मण्डल, वि. सं. १९७२, गाथा १० २. उमास्वामी : तत्वार्थ सूत्र, वर्णी ग्रन्थमाला, बी. नि. सं. २४७६, ५/२६-३० ३. अमृतचन्द्र सूरि तत्वार्थसार, वर्णी ग्रन्थमाला, सन् १९७० ई०, ३/६-७-८ ४. उमास्वामी : तत्वार्थ सूत्र, ५/३८ ५२ श्री कपूर चन्द जैन Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210692
Book TitleJain Darshan me Dravya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size2 MB
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