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________________ स्थिति में सोने की हार रूप पर्याय का तो विनाश (व्यय) हुआ तथा कड़ा रूप पर्याय का सृजन (उत्पाद) हुआ, किन्तु सोना तो दोनों ही अवस्थाओं में ज्यों का त्यों (ध्रौव्य) है। पहले भी सोना था अब भी सोना है। द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है- अद्र वत्, द्रवति, द्रोष्यति तांस्तान् पर्यायान् इति द्रव्यम् जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ, हो रहा है और होगा वह द्रव्य है अर्थात् अवस्थाओं का उत्पाद और विनाश होते रहने पर भी जो ध्रुव रहता है वह द्रव्य है। इससे यह भी फलित होता है कि संसार में जितने द्रव्य थे, उतने ही हैं और उतने ही रहेंगे। उनमें से न कोई घटा है, न घट रहा है और न घटेगा ही। न कोई बढ़ा है, न बढ़ रहा है और न बढ़ेगा ही। सभी द्रव्य नित्य अवस्थित रहते हुए जन्म और मृत्यु, उत्पाद और नाश पाते रहे हैं, पा रहे हैं और पाते रहेंगे। द्रव्य-भेद जैन दर्शन में द्रव्यों की संख्या छः स्वीकार की गई है जबकि वैशेषिक दर्शन में नव द्रव्यों की अवधारणा है । जैन दर्शन सम्मत छ: द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल है । वैशेषिक दर्शन सम्मत नव द्रव्य --- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन हैं। इनमें आकाश और काल द्रव्य दोनों में समान हैं । आत्मा और जीव एक ही हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु शरीर रूप होने से अर्थात् मूर्तिक होने के कारण पुद्गल में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। दिक् चूंकि आकाश का ही एक विशिष्ट रूप है अत: उसे आकाश में अन्तभूत माना जा सकता है। मन-द्रव्यमन और भावमन के भेद से दो प्रकार का है अतः द्रव्यमन का पुद्गल में तथा भावमन का जीव में अन्तर्भाव हो जाता है। धर्म और अधर्म की कल्पना वैशेषिक दर्शन में नहीं है। ये दोनों केवल जैन दर्शन में ही कल्पित हैं। इन द्रव्यों का विभाजन तीन दृष्टियों से किया जा सकता है-- १. चेतन-अचेतन की दृष्टि से । इस दृष्टि से जीव चेतन द्रव्य तथा बाकी पांच अचेतन द्रव्य। २. मूर्तिक-अमूर्तिक की दृष्टि से । इस विभाजन में पुद्गल मूर्तिक होगा, बाकी पांच अमूर्तिक ।' ३. अस्तिकाय-अनस्तिकाय की दृष्टि से । इस दृष्टि से काल अनस्तिकाय होगा तथा बाकी पांच अस्तिकाय । यह विभाजन निम्न प्रकार होगा द्रव्य चेतन जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल १. चेतन-अचेतन दृष्टि से अचेतन अचेतन अचेतन अचेतन अचेतन २. मूर्तिक-अमूर्तिक दृष्टि से अमूर्तिक मूर्तिक अमूर्तिक अमूर्तिक अमूर्तिक अमूर्तिक ३. अस्तिकाय-अनास्तिकाय की अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अनस्तिकाय दृष्टि से जीव जैन दर्शन में जीव द्रव्य, जिसे आत्मा भी कहा जाता है, स्वतन्त्र और मौलिक माना गया है। जीव का सामान्य लक्षण उपयोग है उपयोगो लक्षणम् क्योंकि यह जीव को छोड़कर अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। उपयोग का अर्थ है......चेतना। चेतना जीव का लक्षण है अर्थात् जिसमें चेतना है, वह जीव है, जिसमें चेतना नहीं, वह जीव नहीं। उपयोग दो प्रकार है। प्रथम ज्ञानोपयोग-घटपट आदि बाह्य पदार्थों को जानने की शक्ति ज्ञानोपयोग है। ज्ञानोपयोग में अनेक विकल्प होते हैं, जैसे यह घट है, यह घट नहीं है आदि । दूसरा दर्शनोपयोग --वस्तुओं के सामान्य रूप को जानने की शक्ति दर्शनोपयोग है। ज्ञानोपयोग स्वभावज्ञान तथा विभावज्ञान-दो प्रकार का है। स्वभावज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान, इसके मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पांच प्रकार हैं तथा विभावज्ञान के कुमति, कुथु त तथा विभंगावधि ये तीन मेद हैं।' इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। मतिज्ञान के पश्चात् जो अन्य पदार्थ का ज्ञान होता है, वह १. उमास्वामी : तत्वार्थसूत्र, ५/१-३ तथा ३६ २. 'तत द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव', तर्कसंग्रह, मोतीलाल बनारसीदास, १६७१, १०६ ३. तत्वार्थसार, ३२ ४. नेमिचन्द्र : द्रव्यसंग्रह, वर्णी ग्रंथमाला, सन् १९६६ ई., गाथा १५ ५. कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय, गाथा ४ ६. वही, गाथा ४१ और तत्वार्थ सूत्र, २/6 जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210692
Book TitleJain Darshan me Dravya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size2 MB
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