________________ हैं: कर्म के अनंत प्रदेशी द्रव्यों को देखा है और कहा कि, 'कर्म रूप पुद्गल एक परमाणु रूप होता है और अनेक परमाणु रूप भी परिणाम प्राप्त करने वाले पुद्गल स्कंध विश्व में सर्व जगह व्याप्त हैं। होता है और एक दूसरे के संपर्क से स्कंध के रूप में पहचाने जाते कर्म के भेदः श्री देवेन्द्रसूरि म. ने अपने स्वरचित कर्म विपाक हैं, आत्मा पुद्गल रूप स्कंधों को ग्रहण नहीं करती है, लेकिन स्कंध तप नाम के ग्रंथ में कर्म के मुख्य आठ प्रकार और उत्तर भेद 158 बताये से रहे हुए पुद्गल स्कंधों को ग्रहण करती है। ये स्कंध सर्व जगह व्याप्त हैं। जीव के साथ कर्मों का बंध शास्त्रों में अनेक प्रकार से बताया मूलपगइट्ठ उत्तर पगइ, अडवनसयमे अं. हैं / (1) स्पष्ट (2) बंध (3) निघत (4) निकाचित / "इअ नाणदंसणावरण, वेउमोहाउनामगोआणि"॥ स्पष्ट बंध- यह कर्म तो कोई अन्य निमित्त मिलने पर भोगे इसमें मूल भेद (1) ज्ञानावरणीय (2) दर्शनावरणीय (3) वेदनीय बिना ही छूट जाता है। माल (4) मोहनीय (5) नामकर्म (6) आयुष्यकर्म (7) गोत्रकर्म और बंध बंध - यह कर्म थोड़ा फल देकर छूटा पड़ जाता है। (8) अंतराय कर्म ये मूल आठ प्रकार हैं। और इसके उत्तर भेद विभिन्न निघत बंध -यह कर्म अधिक फल देकर छूटा पड़ जाता है। प्रकार के हैं, इनके द्वारा आत्मा शुभाशुभ निमित्त मिलने पर कर्म का बंध करती है। निकाचित बंध- लेकिन यह कर्म तो ऐसा है कि उसे किसी भी प्रकार भुगतना ही पड़ता है भोगे बिना नहीं छूटता है। आत्मा जिस मूर्त का अमूर्त पर प्रभाव :- यदि कर्म मूर्त हैं जड़ हैं तो फिर परिणाम में कर्म का बंध करती है, उसी प्रकार उसे भुगतना पड़ता है, वह अमूर्त ऐसी चेतनावन्त आत्मा पर अपना प्रभाव कैसे डाल सकते जैसे किहैं? इसका उत्तर इतना ही है कि जिन ज्ञानादि गुणों से युक्त आत्मा पर मदिरा आदि का प्रभाव पड़ता है वैसे ही अमूर्त जीव पर मूर्त का कर्मणोहि प्रधानत्वं किं कुर्वन्ति शुभाग्रहाः / प्रभाव पड़ता है। दूसरा समाधान यह भी है कि कर्म के संबंध के वशिष्ठदत्तलग्नेऽपि, राम: प्रवजितो वने // कारण आत्मा कथंचित् मूर्त भी है क्योंकि कर्म का आत्मा के साथ यह सब बताने पर भी मुख्य लक्ष्य यही है कि आत्मा जैसे कर्मों अनादिकाल से सम्बन्ध है इस अपेक्षा से आत्मा सर्वथा अमूर्त नहीं / को करता है उसी प्रकार के शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल उसे है, अपितु कर्म संबंध होने के कारण अमूर्त होते हुए भी मूर्त है। इस मिलते हैं जिस प्रकार जैसे गुरु ने राम को राज्याभिषेक का लग्न दिया, दृष्टि से अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म का उपघात, अनुग्रह, प्रभाव पड़ता लेकिन कर्म प्रधानता से सभी निष्फल है और उसी समय उन्हें वन में जाना पड़ा। महावीर परमात्मा जैसे महान पुरुषों को भी कर्म ने नहीं जीव का कर्म के साथ संबंध : जीव का कर्म के साथ मिथ्यात्व छोड़ा। अविरति और हेतुओं के द्वारा एकमेक होना जिस प्रकार कि जल और कर्म से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति:- भारतीय दर्शन में जिस दूध परस्पर एकमेक हो जाते हैं। वैसे ही कर्म प्रदेश के परमाणु प्रकार कर्मबंध के कारण माने गये हैं उसी प्रकार मोक्ष के उपाय भी आत्म प्रदेश के परमाणु आत्म प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं माने गये हैं। बंधन से विपरीत दशा को मोक्ष एवं मुक्ति कहा जाता अथवा अग्निलौहपिण्डवत् जिस प्रकार लौह पिंड को अग्नि में डाल हैं, जीव का कर्म के साथ प्रतिक्षण संबंध होता हैं। पुरातन कर्म अपना देने से उसके कण-कण में अग्नि परिव्याप्त हो जाती है उसी प्रकार फल देकर आत्मा से अलग पड़ते और नये कर्म प्रतिसमय बंधाते हैं, आत्मा के असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त-अनन्त कर्मवर्गणा के कर्मदलितों लेकिन इसका परिणाम यह नहीं हैं कि आत्मा कभी कर्मों से मुक्त बने का संबंध हो जाता है। जब जब अमूर्त ऐसी आत्मा शुभाशुभ विचार ही नहीं जैसे स्वर्ण और मिट्टी परस्पर मिलकर एक हो जाते है, किन्तु करती हैं तब तब मूर्त ऐसे कर्म कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को खेंचकर ताप आदि प्रक्रिया के द्वारा जिस प्रकार मिट्टी को अलग करके शुद्ध अपने आत्मप्रदेशों के साथ जोड़ती है जिस प्रकार दीपक वर्तिका द्वारा स्वर्ण को अलग कर लिया जाता है उसी प्रकार आत्मा अध्यात्म साधना तेल ग्रहण करता है उसी प्रकार, और इस प्रकार के संपर्क शुभाशुभ से कर्म विमुक्त हो जाती है। फिर कभी कर्मबंध नहीं होता है, क्योंकि विचार चलते हैं और पहले एकत्रित कार्मण पुद्गल के स्कंधों को कर्म कर्मबंध के साधनों का सर्वथा अभाव हो जाता है जैसे बीज के सर्वथा शब्द से पहचाने जाते हैं। इस प्रकार आत्मा कर्म को जिस प्रकार जल जाने पर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है उसी प्रकार कर्म रूपी बांधती है उसी प्रकार का कर्म का स्वभाव वह कितने वर्ष तक आत्मा बीज जल जाने से संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। इससे यह के साथ रहेगा? किस प्रकार उसे भुगतना पड़ेगा, इसका प्रमाण कितना, सिद्ध होता है कि आत्मा एक दिन कर्म से बद्ध हुआ है, वह आत्मा आदि निश्चित हो जाते हैं। एक दिन कर्मों से मुक्त हो सकती है। कर्म मल से विमुक्त आत्मा ही जैन दर्शन के अनुसार अन्त में परमात्मा हो जाती है। मधुकर मौक्तिक भाव की शक्ति जब प्रगाढ़ हो जाती है, तब भव की शृंखला शिथिल हो जाती है। प्रगूढ़ भावों के अन्त:स्तल को स्पर्श करने के लिए पूर्व में कहा गया है कि प्रार्थना, जिसके आगे भवशक्ति का ह्रास हो जाता है, परम सहायक बन सकती है। श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना सच्ची रख आराधना, सच्चा मानव धर्म / जयन्तसेन सरल सुखद, करते रहो सुकर्म // virww.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only