Book Title: Jain Darshan me Karmavad ki Asmita Author(s): Anekantlatashreeji Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 1
________________ जैन दर्शन में कर्मवाद की अस्मिता भारतीय दर्शन में कर्म और उसके फल के सम्बन्ध में गंभीरता से विचार किया गया है। कर्म-सिद्धान्त की भारतीयदर्शन में एक अनूठी विशेषता है। कर्म क्या है ? और इसका फल कैसे मिलता है ? तथा किस कर्म का क्या फल मिलता है ? इस विषय पर भारतीय दर्शन और भारत के तत्वदर्शी चिंतको ने जो विचार किया हैं उतना और वैसा पाश्चात्य दर्शन में नहीं किया गया है। भारतीय दर्शन में भी जैनदर्शन ने कर्म के स्वरूप में जो गहन एवं विशाल चिन्तन प्रस्तुत किया है वह एक अनोखा ही हैं। (साध्वीश्री अनेकान्तलताश्रीजी) कर्म - "क्रियते धार्यते वा कर्मणा तत् कर्म" यह शब्द व्यापार क्रिया उद्यम या पुरुषार्थ अर्थ में प्रयोग में लिया जाता है। गीता का "कर्मयोग" भी उद्यम प्रवृत्ति के अर्थ का ही सूचक हैं। लेकिन यहाँ "कर्म" का अर्थ अलग ही है जो कर्मविज्ञान पर सुव्यवस्थित रूप से हैं । 1 संसार में शब्द मात्र सापेक्ष भाव से ही है, आप एक शब्द का उच्चारण करो कि दूसरा विरोधी शब्द उसके सामने ही खड़ा है आपने सुख शब्द का उच्चारण किया तो आपके सामने दुःख शब्द है ही अत: विश्व में सुख-दुःख, शुभ-अशुभ, सदाचार- दुराचार, दोनों प्रकार के भावों का शाश्वत अस्तित्व रहा हुआ है, धार्मिक परिभाषा में हम उसे पुण्य-पाप से पहचानते हैं। अतः विविध धर्म के स्थापकों को लगा कि इस विचित्रता के पीछे अवश्य कोई कारण तो होना ही चाहिए। कारण के बिना कार्य कैसे हो सकता है ? अतः कर्म शब्द के लिए विभिन्न दर्शनकारों ने भित्र-भित्र शब्द का प्रयोग किया बौद्धशास्त्रकारों ने इसके संस्कार, वासना, अविज्ञप्ति शब्द पसंद किये हैं। सांख्यशास्त्रों ने प्रकृति शब्द स्वीकार किया है। वेदान्तियों ने माया, अविद्या शब्द का प्रयोग किया है। वैशेषिकों ने अदृष्ट शब्द का और मीमांसकों ने अपूर्व शब्द का प्रयोग किया है तथा जैन शास्त्रकारों ने एक विशेष अर्थ ही इसके लिए प्रकाशित किया है। 1 अच्छे या बुरे भावों का जन्मदाता भोक्ता या मोक्ता जीव ही है। तब निर्विवाद प्रश्न उठता है कि जीवमात्र अच्छे काम ही क्यों न करे, जिससे उसे दुःखी होने का अवसर ही नहीं मिले लेकिन चेतना सदैव शुभमार्ग में प्रवृत्त नहीं हो सकती है। तब प्रश्न उठता है कि ऐसा होने का कारण क्या हैं ? श्रीमद जयंतसेनरि अभिनंदन वाचना तब अनंत करुणा के निधान समता के सागर श्री महावीर भगवान् ने अपने देदीप्यमान केवलज्ञान रूपी ज्योति में जो देखा है:- वह इस Jain Education International प्रकार है " वे कहते हैं कि कोई अदृष्ट सत्ता आत्मा को खींच रही होती है इससे निश्चित होता है कि विश्व में दो ही सत्ता का अस्तित्त्व है। मोक्ष में न जाय तब तक सनातन है आत्मसत्ता, जीवसत्ता या चैतन्यसत्ता और दूसरी... है कर्मसत्ता । इन दोनों के परस्पर मिलन से संसार में संघर्ष झगड़े आदि उत्पन्न होते हैं और उसके परिणाम से कर्म जिस प्रकार जीव को नचाता है उसी प्रकार नाचना पड़ता है । तब मानव मस्तिष्क में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कर्म वस्तु क्या है ? विश्व के किसी भी किसी धुरंधर तत्वज्ञानी ग्रन्थ में, जैनधर्म ने कर्म की जो व्याख्या की है उसका अंश मात्र भी नहीं है। स्थूल व्याख्या तो जरूर हो सकती है, लेकिन सूक्ष्म से सूक्ष्मतर व्याख्या नहीं हो सकती है। यह व्याख्या तो सर्वज्ञ भगवंत द्वारा कथित जैन शास्त्रों के द्वारा ही जानी जा सकती है। यह विज्ञान त्रिकालज्ञानी तीर्थंकर भगवंत ने अपने साक्षात् ज्ञान में देखकर ही बताया है। तब प्रश्न उठता है कि इसका प्रमाण क्या है ? तब तत्त्वज्ञानियों ने बताया कि कर्मशास्त्र के लिए जो शब्द प्रयुक्त है वह शब्द विश्व में कोई जगह कोई स्थान में सुनने में या देखने में नहीं आ सकता है। इन शब्दों की अभिनवता और अप्रतिद्वन्द्विता सर्वज्ञ द्वारा कथित सच्चाई को पूर्ण करने के लिए निष्पक्ष और तटस्थ विद्वानों के लिए प्रमाण पत्र रूप हैं। कर्म की परिभाषा :- कर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि आत्म संबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म कहा जाता है और द्रव्य कर्म के बन्ध हेतु रागादि भाव, भाव कर्म माना गया है। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने अपने स्वरचित ग्रंथ में कर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है कि - "कीरह जीएण हेउहि जेणं तो भण्णए कम्म" कर्म का यह लक्षण द्रव्य और भाव दोनों में घटित होता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांचों के द्वारा आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है, जिससे उसी आकाश प्रदेश में स्थित अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध हो जाता है, वह आत्म-संबद्ध पुगल कर्म कहा जाता है। ये कर्म पुट्रल चौदह राजलोक में पूर्ण रूप से भरे हुए हैं। महावीर परमात्मा ने अपने ज्ञानद्वारा प्रत्यक्ष ६० For Private & Personal Use Only धर्म सिखाता है यहाँ, मैत्री करुणा भाव । जयन्तसेन विमुक्ति पथ, मिलता धर्म प्रभाव ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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