________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त : पन्यासप्रवर श्री नित्यानन्दविजय जी (अपने पूर्वकृत् कर्मों का शुभाशुभ फल भोगना ही पड़ता है / यदि अन्यकृत कर्मों का फल हमें भोगना पड़ता हो तब हमारे स्वकृत कर्म निरर्थक ही रहें।) जैनमतानुसार प्राणिमात्र को कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। फलोत्पत्ति के लिए कर्मफलनियन्ता ईश्वर का बीच में कोई स्थान नहीं है। भौतिक संस्कृति में पले हुए लोग कर्मफल में विश्वास नहीं करते / उनकी शंका है कि "पापी मनुष्य सुखी और सज्जन दुःखी क्यों दिखाई देते हैं ?" जैनदर्शन के अनुसार कर्म का फल तो अवश्य ही मिलता है उसके मिलने में कभी अधिक बिलम्ब भी हो सकता है, परन्तु कर्म का फल न मिले यह तो असम्भव है। जैनमतानुसार हिंसक मनुष्य की समृद्धि और सज्जन पुरुष की दरिद्रता का कारण क्रमशः पूर्वजन्मकृत पापानुबन्धी पुण्यकर्म और पुण्यानुबन्धी पापकर्म है / हिंसा और सज्जनता का क्रमशः अशुभ और शुभ फल अवश्य मिलता है, चाहे जन्मान्तर में ही क्यों न मिले / अनन्त लब्धिनिधान गणधर गौतम स्वामी भगवान महावीर स्वामी से पूछते हैं : "दुक्खे केण कडे ?" (दुःख किसने पैदा किया) भगवान ने बताया : "जीवेण कडे पमाएण" (स्वयं जीव ने ही दुःख उत्पन्न किये हैं)। गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया : 'दुःख पैदा कर आत्मा ने अपना अनिष्ट क्यों किया ?' प्रभु ने उत्तर दिया : 'प्रमादवश / ' प्रमादवश जीव शरीर को आत्मा मानकर भोगों की ओर प्रवृत्त होता है। शारीरिक सुख के लिए वह हिंसा, शोषण आदि दुष्कर्मों में लिप्त होता है। यह उसकी घोर अज्ञान दशा प्रकट होती है / प्रमाद के कारण जीव राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कालुप्य से कलुषित हो जाता है, अतः जीव को अपनी आत्म-शक्ति का बोध होना आवश्यक है। सम्यक्त्व, स्वाध्याय, सत्संगति, शुद्ध चरित्र आदि से जीव की विभाव दशा मिट जाती है और वह बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की ओर मुड़ जाता है। अन्तर्मुखी आत्मा अपने अन्तर्गत विद्यमान अनन्त चतुष्टय-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को अपनी निर्मल साधना से प्रकट करके परमानन्द में निवास करती है / जैनदर्शन का कर्मवाद भाग्यवाद को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार जीव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है / इस निर्माण में जीव का पुरुषार्थ महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यदि जीव मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थभाव चतुष्टय से विभूषित होकर सत्कर्म में पुरुषार्थ करे तो उसके अन्तर् के कपाट खुल जायेंगे और वह मानस-मन्दिर में विराजमान करुणासागर वीतराम परमात्मा के दर्शन कर सकेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org