Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhant Author(s): Nityanandvijay Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 1
________________ जैन दर्शन में कर्मसिद्धान्त --पन्यासप्रवर श्री नित्यानन्दविजय जी [जैन तत्त्व विद्या को अधिकारी विद्वान प्रसिद्ध प्रवचनकार धर्म प्रभावक सन्त भारतीय दर्शनों में कर्म-दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि पृथ्वी के सभी भागों में, सभी दर्शनकारों ने कर्मवाद माना है, परन्तु भारतीय दर्शनों में परस्पर मतभेद होते हुए भी कर्मवाद के अमोघत्व को सभी ने स्वीकार किया है। विश्व के कवि-मनीषी कर्म-फल के विषय में एकमत हैं । अंग्रेजी के महान् साहित्यकार शेक्सपीयर ने कर्म-फल के विषय में कहा है : 'My deeds upon my head.' कवि शिहलन मिश्र 'शान्ति शतकम्' में बताते हैं : आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्तमम्भोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेष्टम् ।। जन्मान्तराजितशुभाशुभकृन्नराणां छायेव न त्यजति कर्मफलानुबन्धि ॥२॥ आप आकाश में चले जाएँ, दिशाओं के उस पार पहुँच जाएँ, समुद्र के तल में घुस बैठे या चाहे जहाँ चले जाएँ, परन्तु जन्मान्तर में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, उनके फल तो छाया के समान साथ ही साथ रहेंगे, वे तुम्हें कदापि नहीं छोड़ेंगे । जैनाचार्य श्रीमद् अमितगति कहते हैं स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ।। -सामायिक, पाठ ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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