________________ जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण 125 है तो फिर बिना पुनर्जन्म के इस विकास की दिशा में आगे कैसे बढ़ा जन्मों में शुभाशुभ कर्मों के फल-सम्बन्ध की दृष्टि से आठ विकल्प माने जा सकता है? गीता में भी नैतिक पूर्णता की उपलब्धि के लिए अनेक गये हैं-(१) वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में ही फल देवें। जन्मों की साधना आवश्यक मानी गयी है।४३ डॉ० टाटिया भी लिखते (2) वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें। (3) हैं कि “यदि आध्यात्मिक पूर्णता (मुक्ति) एक तथ्य है तो उसके भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें। (4) साक्षात्कार के लिए अनेक जन्म आवश्यक हैं।"४४ भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें। (5) वर्तमान साथ ही आत्मा के बन्धन के कारण की व्याख्या के लिए जन्म के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें। (6) वर्तमान जन्म के पुनर्जन्म की धारणा को स्वीकार करना होगा, क्योंकि वर्तमान बन्धन शुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें। (7) भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म की अवस्था का कारण भूतकालीन जीवन में ही खोजा जा सकता है। वर्तमान जन्म में फल देवें। (8) भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म भावी जो दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते, वे व्यक्ति के साथ जन्मों में फल देवें।४६ / / समुचित न्याय नहीं करते। अपराध के लिए दण्ड आवश्यक है, लेकिन इस प्रकार जैन दर्शन में वर्तमान जीवन का सम्बन्ध भूतकालीन इसका अर्थ यह तो नहीं कि विकास या सुधार का अवसर ही समाप्त एवं भावी जन्मों से माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार चार प्रकार की कर दिया जाये। जैन दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करके योनियाँ हैं-(१) देव (स्वर्गीय जीवन), (2) मनुष्य, (3) तिर्यंच (वानस्पतिक व्यक्ति को नैतिक विकास के अवसर प्रदान करता है तथा अपने को एवं पशु जीवन) और (4) नरक (नारकीय जीवन)।४७ प्राणी अपने एक प्रगतिशील दर्शन सिद्ध करता है। पुनर्जन्म की धारणा दण्ड के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार इन योनियों में जन्म लेता है। यदि वह शुभ सुधारवादी सिद्धान्त का समर्थन करती है, जबकि पुनर्जन्म को नहीं कर्म करता है तो देव और मनुष्य के रूप में जन्म लेता है और अशुभ मानने वाली नैतिक विचारणाएँ दण्ड के बदला लेने के सिद्धान्त का कर्म करता है तो पशु गति या नारकीय गति प्राप्त करता है। मनुष्य समर्थन करती हैं, जो कि वर्तमान युग में एक परम्परागत किन्तु मरकर पशु भी हो सकता है और देव भी। प्राणी भावी जीवन में क्या अनुचित धारणा है। होगा यह उसके वर्तमान जीवन के आचारण पर निर्भर करता है। पुनर्जन्म के विरुद्ध यह भी तर्क दिया जाता है कि यदि वही आत्मा (चेतना) पुनर्जन्म ग्रहण करती है तो फिर उसे पूर्व-जन्मों की संदर्भ स्मृति क्यों नहीं रहती है। स्मृति के अभाव में पुनर्जन्म को किस आधार 1. विशेषावश्यकभाष्य, 1575 पर माना जाये? लेकिन यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि हम अक्सर 2. वही 1571 देखते हैं कि हमें अपने वर्तमान जीवन की अनेक घटनाओं की भी 3. जैन दर्शन महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य' पृ० 54 स्मृति नहीं रहती। यदि हम वर्तमान जीवन के विस्मरित भाग को 4. आचारांगसूत्र 1/5/5/166 स्वीकार नहीं करते हैं तो फिर केवल स्मरण के अभाव में पूर्व-जन्मों की 5. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य-३/१/७ घटनाएँ भी अचेतन स्तर पर बनी रहती हैं और विशिष्ट अवसरों पर 6. वही 1/1/2 चेतना के स्तर पर भी व्यक्त हो जाती है। यह भी तर्क दिया जाता है कि 7. वही 3/2/21, तुलनीय-आचारांग-१/५/५ हमें अपने जिन कृत्यों की स्मृति नहीं है, हम क्यों उनके प्रतिफल का 8. दिवानचंद, पश्चिमी दर्शन-पृ० 106 भोग करें? लेकिन यह तर्क भी समुतिच नहीं हैं इससे क्या फर्क पड़ता 9. विशेषावश्यकभाष्य-१५५८ है कि हमें अपने कर्मों की स्मृति है या नहीं? यह हमने उन्हें किया है 10 न्यायवर्तिक पृ० 366 (आत्ममीमांसा पृ०२ पर उद्धृत) तो उनका फल भोगना ही होगा। यदि कोई व्यक्ति इतना अधिक 11. सूत्रकृतांग टीका-१/१/८ मद्यपान कर ले कि नशे में उसे अपने किये हुए मद्यपान की स्मृति भी 12. जैन दर्शन पृ० 157 नहीं रहे लेकिन इससे क्या वह उसके नशे से बच सकता है? जो किया 13. गीता-२/१६ है, उसका भोग अनिवार्य है, चाहे उसकी स्मृति हो या न हो।४५ 14. सूत्रकृतांग टीका-१/१/८ जैन चिन्तकों ने इसीलिए कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति के 15. A.C. Mookerjee, Nature of self, p 141-143, साथ-साथ आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार 16. अनेकान्त-जून, 1942 किया है। जैन विचारणा यह स्वीकार करती है कि प्राणियों में क्षमता 17. मुनि नथमल, 'तट दो प्रवाह एक आदर्श साहित्य संघ चुरु, एवं अवसरों की सुविधा आदि का जो जन्मना नैसर्गिक वैषम्य है, पृ०५४. उसका कारण प्राणी के अपने ही पूर्व-जन्मों के कृत्य हैं। संक्षेप में 18. भगवतीसूत्र- 13/7/495 वंशानुगत एवं नैसर्गिक वैषम्य पूर्व-जन्मों के शुभाशुभ कृत्यों का फल 19. समयसार-२७ है। यही नहीं, वरन् अनुकूल एवं प्रतिकूल परिवेश की उपलब्धि भी 20. उत्तराध्ययन-२०/३७ शुभाशुभ कृत्यों का फल है। स्थानांगसूत्र में भूत, वर्तमान और भावी 21. वही- 20/48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org