________________ 124 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ तिर्यंच मरकर मनुष्य होता है, मनुष्य मरकर देव होता है। इस प्रकार इन अनिवार्य रूप से पुनर्जन्म के प्रत्यय से संलग्न है, पूर्ण विकसित नानावस्थाओं को प्राप्त करने के कारण उसे अनित्य कहा जाता है।"३७ पुनर्जन्म सिद्धान्त के अभाव में कर्म सिद्धान्त अर्थशून्य है।"४० आचारदर्शन नैतिक विचारणा की दृष्टि से आत्मा को नित्यानित्य (परिणामी नित्य) के क्षेत्र में यद्यपि पुनर्जन्म सिद्धान्त और कर्म सिद्धान्त एक-दूसरे के मानना ही समुचित है। नैतिकता की धारणा में जो विरोधाभास है, अति निकट हैं, फिर भी धार्मिक क्षेत्र में विकसित हुए आचारदर्शनों ने उसका निराकरण केवल परिणामीनित्य आत्मवाद में ही सम्भव है। कर्म को स्वीकार करते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं किया है। नैतिकता का विरोधाभास यह है कि जहाँ नैतिकता के आदर्श के रूप कट्टर पाश्चात्य निरीश्वरवादी दार्शनिक नित्शे ने कर्म-शक्ति और पुनर्जन्म में जिस आत्म-तत्त्व की विवक्षा है उसे नित्य, शाश्वत, अपरिवर्तनशील, पर जो विचार व्यक्त किये हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं- “कर्मसदैव समरूप में स्थित, निर्विकार होना चाहिए अन्यथा पुनः बन्धन एवं शक्ति के जो हमेशा रूपान्तर हुआ करते हैं, वे मर्यादित हैं तथा काल पतन की सम्भावनाएँ उठ खड़ी होंगी, वहीं दूसरी ओर नैतिकता की अनन्त हैं इसलिए कहना पड़ता है कि जो नामरूप एक बार हो चुके व्याख्या के लिए जिस आत्म-तत्त्व की विवक्षा है उसे कर्ता, भोक्ता, हैं वही फिर आगे यथापूर्व कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होते ही हैं।"४१ वेदक एवं परिवर्तनशील होना चाहिए अन्यथा कर्म और उनके प्रतिफल ईसाई और इस्लाम आचारदर्शन यह तो मानते हैं कि व्यक्ति और साधना की विभिन्न अवस्थाओं की तरतमता की उपपत्ति नहीं अपने नैतिक शुभाशुभ कृत्यों का फल अनिवार्य रूप से प्राप्त करता है होगी। जैन विचारकों ने इस विरोधाभास की समस्या के निराकरण का और यदि वह अपने कृत्यों के फलों को इस जीवन में पूर्णतया नहीं प्रयास किया है। प्रथमतः उन्होंने एकान्त नित्यात्मवाद और अनित्यात्मवाद भोग पाता है तो मरण के बाद उनका फल भोगता है, लेकिन फिर भी के दोषों को स्पष्ट कर उनका निराकरण किया, फिर यह बताया है कि वे पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार, विरोधाभास तो तब होता है जब नित्यता और अनित्यता को एक ही व्यक्ति को सृष्टि के अनन्त में अपने कृत्यों की शुभाशुभता के अनुसार दृष्टि से माना जाय। लेकिन जब विभिन्न दृष्टियों से नित्यता और हमेशा के लिए स्वर्ग या किसी निश्चित समय के लिए नरक में भेज अनित्यता का कथन किया जाता है, तो उसमें कोई विरोधाभास नहीं दिया जाता है, वहाँ व्यक्ति अपने कृत्यों का फल भोगता रहता है, इस रहता है। जैन दर्शन आत्मा को पर्यायार्थिक दृष्टि (व्यवहारनय) की प्रकार वे कर्म सिद्धान्त को मानते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं अपेक्षा से अनित्य तथा द्रव्यार्थिक दृष्टि (निश्चयनय) की अपेक्षा से करते हैं। नित्य मानकर अपनी आत्मा सम्बन्धी अवधारणा का प्रतिपादन जो विचारणाएँ कर्म सिद्धान्त को स्वीकार करने पर भी करता है। पुनर्जन्म को नहीं मानती हैं, वे इस तथ्य की व्याख्या करने में समर्थ नहीं हो पाती हैं कि वर्तमान जीवन में जो नैसर्गिक वैषम्य है उसका आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म कारण क्या है? क्यों एक प्राणी सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित कुल में जन्म आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म का प्रत्यय जुड़ा हुआ लेता है अथवा जन्मना ऐन्द्रिक एवं बौद्धिक क्षमता से युक्त होता है और है। भारतीय दर्शनों में चार्वाक को छोड़कर शेष सभी दर्शन पुनर्जन्म के क्यों दूसरा दरिद्र एवं हीन कुल में जन्म लेता है और जन्मना हीनेन्द्रिय सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। जब आत्मा को अमर मान लिया जाता एवं बौद्धिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ होता है? क्यों एक प्राणी का मनुष्यहै, तो पुनर्जन्म को स्वीकार करना ही होगा। गीता कहती है-"जिस शरीर मिलता है और दूसरे को पशु-शरीर मिलता है? यदि इसका प्रकार मनुष्य वस्त्रों के जीर्ण हो जाने पर उनका परित्याग कर नये वस्त्र कारण ईश्वरेच्छा है तो ईश्वर अन्यायी सिद्ध होता है। दूसरे, व्यक्ति को ग्रहण करता रहता है, वैसे ही आत्मा भी जीर्ण शरीर को छोड़कर नया अपनी अक्षमताओं और उनके कारण उत्पन्न अनैतिक कृत्यों के लिए शरीर ग्रहण करती रहती है।" न केवल गीता में, वरन् बौद्ध दर्शन में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकेगा। खानाबदोश जातियों में जन्म लेने भी इसी आशय का प्रतिपादन किया गया है।३८ डॉ० रामानन्द तिवारी वाला बालक संस्कारवश जो अनैतिक आचरण का मार्ग अपनाता है, पुनर्जन्म के पक्ष में लिखते हैं कि “एक जन्म के सिद्धान्त के अनुसार उसका उत्तरदायित्व किस पर होगा? वैयक्तिक विभिन्नताएँ ईश्वरेच्छा का चिरन्तन आत्मा और नश्वर शरीर का सम्बन्ध एक-काल विशेष में परिणाम नहीं, वरन् व्यक्ति के अपने कृत्यों का परिणाम है। वर्तमान आरम्भ होकर एक-काल विशेष में ही अन्त हो जाता है, किन्तु जीवन में जो भी क्षमता एवं अवसरों की सुविधा उसे अनुपलब्ध है और चिरन्तन का कालिक सम्बन्ध अन्याय (तर्क विरुद्ध) है और इस (एक- जिनके फलस्वरूप उसे नैतिक विकास का अवसर प्राप्त नहीं होता है जन्म के) सिद्धान्त से उनका कोई समाधान नहीं है-पुनर्जन्म का उनका कारण भी वह स्वयं ही है और उत्तरदायित्व भी उसी पर है। सिद्धान्त जीवन की एक न्यायसंगत और नैतिक व्याख्या देना चाहता नैतिक विकास केवल एक जन्म की साधना का परिणाम नहीं है। एक-जन्म सिद्धान्त के अनुसार जन्मकाल में भागदेयों के भेद को है, वरन् उनके पीछे जन्म-जन्मान्तर की साधना होती है। पुनर्जन्म का अकारण एवं संयोगजन्य मानना होगा।"३९ / / सिद्धान्त प्राणी को नैतिक विकास हेतु अनन्त अवसर प्रदान करता है। डॉ. मोहनलाल मेहता कर्म सिद्धान्त के आधार पर पुनर्जन्म ब्रैडले नैतिक पूर्णता की उपलब्धि को अनन्त प्रक्रिया मानते हैं।४२ यदि के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनके शब्दों में-“कर्म सिद्धान्त नैतिकता आत्मपूर्णता एवं आत्म-साक्षात्कार की दिशा में सतत प्रक्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orga